जैन सांस्कृतिक चेतना (1985) एसी 5937 | Jain Sanskritik Chetna (1985) Ac 5937
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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करे । ब परमभाव उनकी प्ंतिस साधना तक बता रहा । शाठृरूण्य से सहादसिक
निकक्रमरए कर महावीर कर्मरिप्राम पहुंचे जहां उन्हें कोई पहिचाान से सका + कि
वे एक महासामन्त के पुत्र ने इसलिए शायद थे जन-जीवम में तहीं झा सके होंगे ।
संभूथी साधना के धीच ईन्द्र रादि जसी कोई न कोर चिझूंति उनेफा संरंताश
करती रही । उपसर्गी का प्रारम्भ झौर प्रन्त दोनों गोपालक से তু है । यों से
संभ्वद्ध होने के कारण क्यो न इस संबोग को वात्सल्य हाय का গর্ত লালা আব
जी जँनधर्म का प्रमुख ध्ंग है ।
तपस्वी महावीर पर प्रथमतः उवाला जय प्रहार करने दौड़ता है तो तुरन्त
ही उसे भान करा दिया जाता है कि-ो मूर्ख ? तू यह क्या कर रहा है ? क्या तू |
नहीं जानता ये मद्दाराज सिद्धार्थ के पुत्र व्धभान राजकुमार हैं। ये प्रात्म-कल्वारां के
साथ जगतब्कल्याण के निमित्त दीक्षा धारण कर साधना में लीन हैं।? यह कथन
साधना का उद्देश्य प्रकट करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति मे साध्य भौर साभन दोंतों की
विशुद्धि ने साधक को कभी विघलित नही होने दिया ।
यहाँ इन्द्र व्धभान की सहायता करता चाहता है पर साधक वर्घमान कहते
हैं कि “भ्रहदुन्ल केवसश्ञान की सिद्धि प्राप्त करने से किसी की सहायता नहीं लेते ।
जितेन्द्र अपने बल से ही केवलशान की प्राष्ति किया फरते हूँ।? इसके बावजूद इख ने
घ्िद्धायं नामक व्यतर फी सियुक्ति कर दी जी वभनम की भप्रम्त तक रक्षा करता
रहें । हम जानते हैं, महांवीर के पिता का गाभ सिद्धार्थ था झोर भीत॑भ शुद्ध का
भी तार सिद्धार्थ था। सिंदाये फो ध्यतर फंहुक॑र उल्लिखित करने को उद्देश्य यही ही
सकता है कि घटना-लेखक गोतम बुद्ध के ध्यक्तित्त को नीच करना चाहता रहा
हो । दोनो भर्मों में इस प्रकार की घटनाझो का भ्रमाव नहीं । इनदर कौ वेदिक सरति
में प्रधान देवता का स्थान मिला | बधेमानके नरणों में नतमस्तक कराने का
उद्य एक भोर साधकके व्यक्तित्व को ऊंचा दिश्चाना भौर সুর দত সয়
सस्कृति को उच्वतर बतलाना रषा है । सिद्धार्थ यदि ब्यवर होता तो उसने महाबीरे
[1
1. बारस वासाई बोसद्ठकाए चियतत देहे जे केई उबसत्या समुप्पण्यंति, हें
जहा, दिव्या वा, माणुस्सा वा, तेरिज्छिया वा, ते सम्बे उवसममे समुण्वण्छ,
सभारों सम्म॑ सहिस्सामि, लभिरध्तामि, भहियासिह्हाति | अस्चारांग ०
জুরাচ্যনন 2। মণ 23, অঙ্গ 391
2. विशष्ठिशलाकापुरषचरित, 10,3,17-26
3. भ्रावश्यक पूणि 1, प. 270 । सको पड़ियतो-सिद्धत्थदितों ने
जिषष्टिशलाकापुदणजरित, 10, 3. 29-33
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