रीढ़ की हड्डी | Ridh Ki Huddi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
158
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(श्रीधर ग्रथ देखते हूए रोक पठते है)
श्रीधर --ॐ ईशावास्यमिई सवं यत्किच जगत्या जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जोथा मा गृध कस्यस्विद्धनम् ॥
र्यात् -जगन् मं जो कु स्थावर श्रौर अंगम हे, वह
सब ईश्वर के दवारा प्राच्छादित हं } तात्पयं, ससार ঈ क्रोड में
भगवान की ही सत्ता है । तु नामरूपात्मक बाहरी विकारो के
परित्याग से वास्तविक सत्ता जो ईवर कौ ह, उसका स्वाद .
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा . ( सुशीला की शरोर ) तुम মান
नहीं सुन रही हो ?
सुशीला--( 'बान-मग्नता से चाककर ) श्रेंह, सुन तो रहो हू, किन्तु
भारत्रि
श्रीधर --( बीच हो में ) भारवि ! फिर भारवि ! भारवि के पीछे
वेद छोड दो, उपनिषद् छोड़ दो, ज्ञास्त्र छोड़ दो। भारवि हो
ससार मे एक पुत्र हे श्रौर तुम्हीं ससार में एक माता हो ।
सुशीला --यह मे नही कहती, किन्तु भारवि श्रभी तक नहीं श्राया !
श्रीधर -नहींश्राया,तो श्रा जाएगा ! इस धारा नगरी में उसके
श्राकएा के बहुत से केन्र हे । कहीं बेठ गया होगा । कोई कवि-
ता का भाव खोजने लगा होगा । महाकवि जो बनता है ।
ग्रोर तुम उसको माता हो । तुम भो कविता का भाव
खोजो न! तुम तो अधिक श्रच्छा भाव खोज सकोगो |
श्रच्छा, देखो ! यही भाव देखो, ईशावास्योपनिषद् के पहले
ही श्लोक मे तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः. श्र्थात् तू नाम-
रूपात्मक बाहरी विकारो के परित्याग से वास्तविक सत्ता जो
ईश्वर की है--
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