रीढ़ की हड्डी | Ridh Ki Huddi

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Ridh Ki Huddi  by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(श्रीधर ग्रथ देखते हूए रोक पठते है) श्रीधर --ॐ ईशावास्यमिई सवं यत्किच जगत्या जगत्‌ । तेन त्यक्तेन भुञ्जोथा मा गृध कस्यस्विद्धनम्‌ ॥ र्यात्‌ -जगन्‌ मं जो कु स्थावर श्रौर अंगम हे, वह सब ईश्वर के दवारा प्राच्छादित हं } तात्पयं, ससार ঈ क्रोड में भगवान की ही सत्ता है । तु नामरूपात्मक बाहरी विकारो के परित्याग से वास्तविक सत्ता जो ईवर कौ ह, उसका स्वाद . तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा . ( सुशीला की शरोर ) तुम মান नहीं सुन रही हो ? सुशीला--( 'बान-मग्नता से चाककर ) श्रेंह, सुन तो रहो हू, किन्तु भारत्रि श्रीधर --( बीच हो में ) भारवि ! फिर भारवि ! भारवि के पीछे वेद छोड दो, उपनिषद्‌ छोड़ दो, ज्ञास्त्र छोड़ दो। भारवि हो ससार मे एक पुत्र हे श्रौर तुम्हीं ससार में एक माता हो । सुशीला --यह मे नही कहती, किन्तु भारवि श्रभी तक नहीं श्राया ! श्रीधर -नहींश्राया,तो श्रा जाएगा ! इस धारा नगरी में उसके श्राकएा के बहुत से केन्र हे । कहीं बेठ गया होगा । कोई कवि- ता का भाव खोजने लगा होगा । महाकवि जो बनता है । ग्रोर तुम उसको माता हो । तुम भो कविता का भाव खोजो न! तुम तो अधिक श्रच्छा भाव खोज सकोगो | श्रच्छा, देखो ! यही भाव देखो, ईशावास्योपनिषद्‌ के पहले ही श्लोक मे तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः. श्र्थात्‌ तू नाम- रूपात्मक बाहरी विकारो के परित्याग से वास्तविक सत्ता जो ईश्वर की है--




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