महापुरुषों के दर्शन | Mahapurso Ke Darsan

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Mahapurso Ke Darsan by रामस्वरूप - Ramsvrup

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महापुरुषों के दर्शन ७ नाग तथा उसके कुद्धम्बियों के साथ चहुत देर तक उनका घोर सम्राम होता रहा | अन्त में भगवान्‌ कृष्ण मे उन सबको परास्त करके छोड़ा | कालिय नाग ने बिनय पूवक क्षमा-प्रा्थना की और उस स्थान को छोड़ दूसरी जगह चला गया। एक वार इन्‍्दाबन-वासी इन्द्र देवता को चलि चढ़ाने के लिये एक भारी यज्न रचने का उपक्रम करने लगे । यह देख श्रीकृष्ण भगवान्‌ ने नन्‍द जी से पूछा--यह आप लोग क्या करने चले ह ए नन्द जी वोले- “हम लोग रीति परम्परा के श्रनुसार इन्द्र देवता की पूजा और उसको भेंट चढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं । इन्द्र जल का देबता है। वर्षा उसी की आजा से होती है और वर्षा से खेत हरे दते हैं, अन्न की उपज वढ़ती है और मनुष्य को अपनी आजीबिका के साधन प्राप्त देते हैं ।” श्रीकृष्ण की आयु अभी चाल्यावस्था के ही अन्तर्गत थी। चह कोई भारी विद्वान भी नहीं थे, पर उन्होने कद्दाः--“मलुष्य का अस्तित्व उसके कर्मों का ही फल है । उसका जन्म-मरण, उसे * का मन्नल और अमझ्ल, सब कुछ उसके अपने कर्मो का ही फल है! न सलुष्य कोर कर्म करे और न उसको कोई फल परापर हो ! इस करण संसार मे जो धस्तु सर्वोत्तमं तथा सरव््ठ सानने के योग्य है, वह यही कम हैं | इन्द्र की पूजा व्यर्थ है, कम ही इन्द्र हैं। जो हमे जीवित रहता स्वीकार झे, तव हमको चाहिये कि कम करे। और पजा-अर्चता की अधिकारी भी वही वस्तु है जो




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