परमात्मा प्रकाश | Pramatma Prakash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
362
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमात्मम्रकाशः । ७
इदानीं तिष्ठन्ति थे भवन्तः संतः । किं ङवौणासिष्ठन्ति । परमसमाहिमहग्मियण
कम्मिधणदहि हुणेत परमसमाध्यभिना करमेन्धनानि होमयन्तः । अतो विशेषः । तद्यथा-
तान् सिद्धसमूह्ानहं बन्दे वीतरागनि्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरक्षणपारमाथिकसिद्धमक्तया
नमस्करोमि । ये किंविशिष्टाः । इदानीं पश्चमदाविदेहेषु भवन्तस्िठन्ति श्रीसीमन्धरस्वामि-
परश्तयः । किं कुबेन्तस्तिष्ठन्ति । वीतरागपरमसामायिकभावनाविनाभूतनिर्दोषपरमास-
सम्यक्भ्रद्धानज्ञानालुचरणरूपाभेदरलनत्रयासकनिर्विकस्पसमाधिवैश्धानरे कर्मेन्धनाहुतिभिः
छत्व होमं कुन्त इति । अत्र छुद्धासद्रन्यस्योपदियभूतस्य प्राप्युपायभूतत्वान्निर्विकल्पसमा-
धिरेबोपदेय इति भावाथेः ॥ ই ||
अथ स्वरूपं प्राप्यापि तेन सूंर्बधादनुज्ञानवछेन ये सिद्धा भूत्वा निवोणे वसन्ति
तानहं बन्दे;--
ते पुणु वदडं सिद्धगण, जे णिष्वाणि वसंति ।
णाणि तिहुयणिगस्यावि, मवसायरि ण पडंति ॥ ४॥
तान् पनः वन्दे सिद्धगणान् , ये निवाणि वसन्ति ।
ज्ञानेन त्रिभुवनगुरुका अपि, मवसामरे न पतन्ति ॥ ४ ॥
ते पुणु वंदडं सिद्धमण तान् पुनबैन्दे सिद्धगणान । किं विशिष्टान । जे णिव्वाणि
वसंति ये निवोणे मोक्षदे वसन्ति तिष्ठन्ति । पुनरपि कथंभूता ये । ण्णिं तिहुयणि-
करता हूं;--[ “अहं! | म [ तान् | उन [ सिद्धगणान् ] सिद्ध समूहोंकों [ बन्दे |
नमस्कार करता हूं [ येपि | जो [ भवन्तः तिष्ठन्ति | वर्तेमान समयमें विराज रहे हैं ।
क्या करते हुए ! [ परमसमाधिमहाप्रिना ] परम समाधिरूप महा अमिकर [ कर्मेन्ध-
नानि ] कर्मरूप ईधनको [ होमयन्तः ] भस्मकरते हुए | अब विशेष व्याख्यान है--
उन सिद्धोको मै वीतरागनिर्विकल्पखसंवेदन ज्ञानरूप परमार्थं सिद्धमक्तिकर नमस्कार
करता हूं । केसे हैं वे ” अब वर्तमान समयमें पंच महाविदेह क्षेत्रोंमें श्रीमंघरखामी आदि
विराजमान हं | क्या करते हुए ? वीतराग परमसामायिक चारित्रकी भावनाकर संयुक्त जो
निर्दोष परमात्माका यथार्थ श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेद् रह्नत्रय उसमई निर्विकल्पसमा-
पिरूपी अम्मिमें कर्मरूप इंधनकों होम करते हुए तिष्ठ रहे हैं | इस कथनमें शुद्धात्मद्रव्यकी
प्रात्तिका उपाय भूत निर्विकल्प समाधि उपादेय ( आदरने योग्य ) है यह भावार्थ हुआ
॥ ३ ॥ यह तीसरे दोहेका अथ कहा । आगे जो महामुनि होकर शुद्धात्मखरूपको पाके
सम्यस्ज्ञानके बलसे कर्मोंका क्षयकर सिद्ध हुए निवोणमें वसरहे हैं उनको में बन्दता
हं;--[ पुनः ] फिर [अहं”] में [ तान् | उन [ सिद्धगणान् | सिद्धोको [ बन्दे |
व॑दता हूं | ये | जो | निवाणे ] मोक्षमें [ वसन्ति ] तिष्रहे दै । कैसे हैं वे [ ज्ञानेन |
User Reviews
No Reviews | Add Yours...