मोक्ष का मार्ग | Moksh Ka Marg

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Moksh Ka Marg  by रघुनाथ प्रसाद - Raghunath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ [ मोक्ष का सार्ग भी विकाश नहीं करते | इस पूर्ण का विकाश कैसे कर सकते हैं? हम केदल आवरण को इटा भर देते हैँ --और आत्मा अपने पूर्वकालीन पवित्र रूप में स्वयं रूलकने लगता है | इसकी स्वभावसिद्ध स्वाधीनता सुस्पष्ट हो जातो है । अब प्रश्न यह उदय होता है कि यद शिक्षा आवश्यक क्यों है! घात यह है कि धरम--ईश्वर-सम्बन्धी शान--कानों, नेत्रों या मस्तिष्क के द्वारा नहीं प्राप किया जा सकता | धर्मशास्त्र हमें तत्वदर्श बनाने में समर्थ नहीं हो सकते | संसार में जितने अन्य उपलब्ध हो सकते हैं, उन सभो का पारायण करके भी हम धमं या ईश्वर के सम्बन्ध में एक भो शब्द नहीं समझ सकते । जन्म-जन्मान्तर तक वाद-विवाद करके भी हम इस विषय का ज्ञान नहीं आए कर सकते। यह भी सम्भव है कि संधार में जितने भी प्रतिभावरस्पत्र व्यक्ति हुए हैं, उन सभी से हमारी प्रतिभा बढ़ जाय, परन्तु फिर भी हम ईरचर के समीप तक पहुँचने में जरा भी समय नदीं हो सक्ते ] कभी-कभी तो इसका परिणाम बिलकुल विपरीत ही देखने में आता है। इस बुद्धि- कौशत सम्बन्धी शित्ताके दारा क्या कितने दी घोर चधार्मिक-~ नारितिक--नदीं पैदा दोते देखे गये ? पाश्चात्य सभ्यता का यही सबसे बढ़ा दोप है इसमे केवल बुद्धि-कौशल संबन्धी शिडा मलुष्य को स्वार्थी ही अधिक बनाती है | इसके द्वारा जुष्य दसय स्वार्थ परायण दो जाता है । इखका यहो दोप एष दिने पाश्चात्य समान के पतन का कारण बनेगा | यदि हृदय और बुद्धि में परस्पर विरोधी भाव इष्टियोचर दो तो हृदय का दी अनुसरण करना चाहिए । बात यह है कि प्रतिभा को एकमात्र मर्यादा युक्ति है। इस युक्ति के अन्त- गेव रह फर ए प्रतिभा काम करती है । इसके बादर जाने में वह समर्थ नहीं है! केवल हृदय में इतनी शक्त्ति दै कि वह हमें उच्चतम चेत्र तक पहुँचा सके । उस क्षेत्र तक पहुँचाना अतिभा का काम नहीं




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