श्री जवाहरलालजी | Shri Jawaharlaaljii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2. क्षमामूर्ति खंधक मुनि ( क्रोध, मान माया तथा लोभ-ये चार कषाय भवचक्र मे भ्रमण कराते हैं। अगर हम भवचक्र मे भ्रमण नही करना चाहते और आत्मा को शान्ति देना चाहते है तो क्षमा आदि साधनो द्वारा क्रोध आदि कषायो को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। क्षमा द्वारा क्रोध किस प्रकार जीता जा सकता है यह बात युधिष्ठिर के जीवन से समझी जा सकती है। युधिष्ठिर की भाति कोपमा कुरु इस धर्म-शिक्षा को तुम अपने हदय मे उतार कर सक्रिय रूप दोगे तो तुम भी धर्मात्मा बन कर आत्म-कल्याण साघ सकोगे। क्रोध आदि को जीतने का मार्ग तो बतलाया परन्तु क्रोध आदि के उत्पन्न होने पर किस प्रकार सहनशीलता ओर क्षमा धारण करना चाहिए वह बात खधक मुनि के उदाहरण द्वारा समञ्माता हू। सहनशीलता सीखने के लिये खघक मुनि की सहनशीलता अपने लिये आदर्श है । इस आदर्श का अनुसरण करने मे ही अपना कल्याण है। ) खघक मुनि गृहस्थावस्था मे राजकुमार थे] वे राजकाज करने मे निपुण थे] उनके राज्य-सचालन से प्रजा सतुष्ट ओर सुखी थी । एक दार उन्हे किसी विद्वान्‌ मुनि का उपदेश सुनने का अवसर मिल गया । मुनिवर के उपदेश का प्रभाव उनके जीवन पर पडा। उन्होने विचार किया- मे अपनी धीरता ओर वीरता का उपयोग केवल दूसरो के ही लिये करता हू । यह योग्य नही हे। मु अपने इ गुणो का उपयोग अपनी आत्मा फे लिये नी करना चाहिए। इस प्रकार पिचार कर उन्होने माता-पिता से अनुरोध फिया-मं आत्मा का श्रेयस करना चाहता हू अतएय ऐसा करने की आज्ञा दीएिए। माता-पिता > कहा-पृत । तू आत्मा का धेयस करना चाद ह रह रह पातर परम्पपर्दक ऐसा कर। फश्फजी दोले- ससार ল সত ফাসিপতাহ साधनता मर उाठिउ एटील होला अत्प्दयम सरारय त्या रन्८ ~ सपिता मरः कत्र प्प्ददषलं र उत्स्य म सर्र दस्याः एरए ग-




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