श्रावकाचार संग्रह | Shavarkachar Sangrah Prat V

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Shavarkachar Sangrah Prat V by पं. दौलतराम जी - Pt. Daulatram Ji

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पं. दौलतराम जयपुर की तेरहपंथ शैली में एक समादृत विद्वान थे। उन्होने वि॰सं॰ १८२३ में 'पद्मपुराण' नामक हिन्दी ग्रन्थ की रचना की जो पद्मपुराण के मूलश्लोकों का यह अनुवाद है। वे आधुनिक मानक हिन्दी के आरम्भिक साहित्यकारों में गिने जाते हैं।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पंदम्-क्ृत श्रावकाचार ६९ भेघरथ मूहसाला पण ए, सातमी नरके ते जाय तो | कुदान-पाप तणे फल ए, अवर नारकी इम थाय तो 1१०४ इम जाणि विवेक धरी ए, परिहरु कुदान कुपात्र तो । जैन पात्र सहु पोषीए ए, सफल कीजे निज गात्र त्तो |[१०५ पात्र-कुपात्र इमउ लक्षी ए, पात्र-दान धर्म वृद्धि तो । भवर्‌ कुपात्र-खपात कष्या ए, दान दोजे दथा गुद्धि ततो ॥१०६ लक्ष्मी तणा फल लीजिए ए, पृण्य साचो दातार तो । सप्त क्षेत्रें वित्त वावरो ए, जिनशासन मश्नार तो ॥१०७ जिन प्रासाद करावोइ ए, जीण तणो उद्धार त्तो । জিললহ विम्ब भरावीद्‌ ए, जिनपृस्तक विस्तार तो ॥१०८ प्रासाद प्रिमा जच्र यादि ए, कीजे प्रतिष्ठा चग तो । अष्टविघ जिनं पूजोद ए, कीजे महोत्सव चग तो ॥१०९ जिन भेहबिम्ब ज्या रमि नादीदए, पूजा करे मविजन्न तो । ঘর उपराजी वहू परि ए, व्या लगे दाता हे पुण्य तो ॥११० यव-सम प्रत्तिमा जिन-सम ए, विम्ब-दल प्रासाद লী । तेहना पुण्य नो पार नही ए, भन्य मन करे आह्‌.लाद तो ॥१११ जेह्‌ घर जिन विम्ब नही ए, त्रिवा पात्र नही दान्‌ तो | जिह साध्ररमी भादर नही ए, ते घर जाणो सममान तो ॥११२ मुनीश्वर भार्या कहीद्‌ ए, श्रावक-श्राविका सध चार तो । भक्ति विनय घणो कौजीद्‌ ए, कीजे पर उपकार तो ॥११३ सघ मिलि सघपत्ति थद्‌ ए, सिद्धक्षेत्र कीजे जात्र तो । साधर्मी वात्सल्य कीजीड ए, सफ़र कीजे धन गात्र तो ॥११४ ए मादि वहू परि ए, कीजै पुण्य भाचार तो । श्रीजा शिक्षात्रेत तणी ए, दोप कहं पच प्रकार तो ॥११५ सचित्त-निष्षेप पेहटी दोष ए, सचित्त पद्म पत्र आदि तो | ते उपर ववि आहार करेए, ते तमे त्यजो मत्तिचार तो ॥११६ मादर विना आहार दीइ एं, अथवा दे उपदेश तो । व्यापार काज वेगो जाइए, ते त्रीजो दान दोष तो ॥११७ दान देत्तो मत्सर करे ए, घरे ते लक्मी-अहकार तो | + दात्त कारू उलूघन करे ए, प्रमादपण्णं तिणि वार तो ॥११८ ये पच दृषण त्यजी ए, सदा देमो शुम दान तो । अतिथि सविभाग व्रतत धरो ए, हृदय थद्‌ सादधान तो ॥११९ चौथो निक्षाब्रत सुणो ए, अन्त सरेखण नाम तो । श रीरसङेखण कीजीद ए, क्षीण कषाय परिणामक्षतो ॥१२० रोव मान माया लोम ए, क्षीण कीजे रोष कराय तो । पच इन्द्रौ प्रमार मन ए, कीजे मद परित्याग तो ॥१२१




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