भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 2 | Bhartiya Darshan Ka Itihas Bhag - 2

Bhartiya Darshan Ka Itihas Bhag - 2 by डॉ. एस. एन. दासगुप्ता - Dr. S. N. Dasgupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दयकर वेदान्त सम्प्रदाय (क्रमश ) ] [ ११ जाय तव ऐसा माया की नैमित्तिकता द्वारा उपलक्षणार्थ मे ही होगा ।* श्रप्पय दीक्षित ने “सिद्धान्त-मुक्तावली' के लेखक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनके मतानुसार केवल माया ही जगतु्‌-प्रतीति का उपादान कारण है, ब्रहह किसी भी प्रकार से जगत्‌ का उपादान कारण नही है परन्तु वह (ब्रह्म) केवल साया का श्राश्रय मात्र है एव इसी दृष्टि से इसे उपादान कारण कहा गया है ।* यह स्पष्ट हैं कि नाना विपयात्मक जगतू की रचना के सवबघ मे माया एव आत्मा अथवा ब्रह्म के सवघ के स्वरूप के वारे से उपरोक्त मतभेद केवल शब्द श्रथवा चाग्जाल मात्र है जिसका दाशेनिक महत्व कुछ भी नही है । जैसाकि कहा जा चुका है, उपरोक्त प्रदन शकर के मस्तिष्क में उत्पन्न हुए प्रतीत नहीं होते । उन्होंने श्रविद्या एवं ब्रह्म के सबब तथा जगतु्‌ के उपादान कारण के रूप मे इस सबधघ के योगदान की कोई निदिचित व्यास्या करना उपयुक्त नही समझा । जगत भ्रम है एव ब्रह्म उस सत्य का झ्राघार है जिस पर अम की प्रतीति होती है, क्योकि नानात्व श्रर्थात्‌ भ्रम को भी किसी श्रधिष्ठान की झ्ावइ्यकता रहती ही है। उन्होंने कभी भी श्रपने सिद्धान्त से स्वाभाविक रूप से सबघित कठिनाइयों का पूर्ण रूप से सामना नही किया श्रतः इस अमपूर्ण जगत्‌ की रचना के विषय मे माया एव ब्रह्म के निश्चित सवघ की व्याख्या करना भ्रावइ्यक नहीं समभका ।. इत प्रकार के मतो के विरुद्ध स्वाभाविक श्रापत्ति यह है कि अविद्या (जो निषेघात्मक उपस्ग “्र' एव चिद्या' के समास से बना है) का ग्रथे या तो विद्या का श्रमाव हो सकता है या मिध्या ज्ञान हो सकता है। उपरोक्त दोनो ही भ्रथों मे यह कसी वस्तु का उपादान कारण श्रथवा द्रव्यशुत नहीं हो सकता, क्योकि मिथ्या ज्ञान किसी भी प्रकार का द्रव्य नहीं हो सकता जिसमे से श्रत्य वस्तुभ्नो का झाविर्भाव हो सकता हो ।*. ऐसे श्रापत्ति का समाधान कराते हुए झानन्द भट्टारक कहते है कि यह अविद्या मनोवैज्ञातिक श्रज्ञान नहीं है भ्रपितु यह एक विशिष्ट पारिभाषिक वस्तु है जो श्रनादि एव श्रनिर्वाच्य है (भ्रनायनिर्वाच्याविद्याश्नयणात्‌ ) । ऐसी वस्तु को स्वीकार करना एक ऐसी परिकत्पना है जिसको सत्य मानना उचित है क्योंकि यह तथ्यों की व्यास्या करती है। कार्यों का कारण होना श्रावश्यक है एव केवल निमित्त कारण काययें के अधिष्ठान की उत्पत्ति की व्यास्या नहीं कर सकता, पुन अयथार्थ कार्यो का उपादान कारण न तो यथाथे हो सकता है एव न निरपेक्षरूप * सक्षेप-शारीरिक, १,३३३,३३४ भाऊ शास्त्री का सस्करण । सिद्धान्त लेश, पृ० १३, वी० एस० सिरीज, १८६० । श्रविद्या हि विद्याभावों मिथ्या ज्ञान वा न चोभयम्‌ कर्पचित्‌ समवाधयिकारण श्रद्रव्यत्वात्‌ ।. श्रानन्दवोध कृत न्याय मकरद पु० १९२९२, चौोखभा सस्कत बुक डिपो, वनारस १९६०१ । थ




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