विदेशों के महाकाव्य | Vidaisha Ke Mahakavy

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Vidaisha Ke Mahakavy by गोपीकृष्ण - GopiKrishna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुवादक की ओर से-- बात है पिछली जुलाई की | एक दिन कुछ यों ही बातचीत चल रही थी कि आदरणीय प्रो ° रघुपति सदाय ५फ़िराक! ने मेरा ध्यान अनुवादों की ओर आकृष्ट किया और कहा कि उपन्यासों ओर कहानियों के श्रलावा कितनी ही ऐसी चीज़ें हैं जिनका श्रंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद होना श्रच्छा क्या, बहुत श्रच्छा रहेगा | इस पर में उत्सुक हो उठा और मैंने एक हज़ार नहीं, ऐसे एक अंथ का नाम जानना चाहा। उत्तर में वे उठे श्र श्रन्दर के कमरे से एक मोटा-सा “बॉल्यूम” उठा लाये, “(1० 18007 ०1 77० ! मैंने उसे इधर देखा, उधर देखा श्रौर यदह कायं कर डालने का पका इरादा कर लिया । अब किताब घर आ गई ओर दूसरे दिन से काम शुरू हो गया। किन्तु दो दिन अनुवाद करने के बाद ही मेंने अनुभव किया कि यह काम उतना श्रासान नहीं है। जितना कि लोग समभते हैं, ओर यह कि इस त्षेत्र के अ्रन्तरिक्ष की सीमा-रेखा छू-आने के लिये कितना ख़न पानी कर देना पड़ता है यह केवल वही समझे सकता है जिसने एक बार अनुवाद करने के लिये कोई पुस्तक खोलकर श्रपने सामने रक्खी दो ओर सोचा हो कि व्यथ में बेईमानी भी क्यों की जाये आखिर ! ख़ेर, तो कठिनाइयाँ कई तरह की सामने आई', जिनमें कद्दावतों, मुहाविरों, मिश्रित- वाक्यों श्रौर अ्रभिव्यंजनाओं की मुश्किले काफ़ी अ्रदेम रहीं। बात यह कि हर भाषा का और इस नाते हर भाषा के साहित्य का अपना एक व्यक्तित्व द्वोता है यानी यह कि हर भाषा की अश्रपनी कद्दावत द्वोती हैं, अपने मुहाविरे होते हैं, अपनी अभिव्यंजनायें और अपनी शैलियाँ द्वोती हैं, जिनको ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में ढाल देना बहुत श्रासान नहीं हे । फिर, यद कठिनाइयाँ कई गुनी हो जाती हैं जब प्रश्न अँग्रज़ी साहित्य का आता है, क्योंकि इससे कौन इन्कार करेगा कि अंग्रेज़ी साहित्य विशेषतया समृद्ध एवं भरा-पुरा कद्दा ही नहीं जाता, बल्कि है भी ! हाँ, तो काम तो करना ही था, श्रतणव मुश्किल आसान की गई--कहद्ावतों, मुद्दाविरों ओर अभिव्यंजनाओं की समस्या हल की गई । फल यह हुआ कि कहीं-कद्दीं कई वाक्यों को एक वाक्य में गंथ देना पड़ा और कह्दीं कहाँ एक दी वाक्य के लिये कई वाक्यों की रचना करनी पड़ी, किंतु ऐसा करते समय सीमाश्रों का ध्यान प्रतिक्तण रहा-श्राया श्रौर हस बात की ओर विशेष ध्यान दिया गया कि 'मक्तिका स्थाने मक्षिका? न रखना द्वो तो भी क्‍या हुआ, कहीं ऐसा न हो कि या तो श्रनुवाद छायानुवाद द्वो जाये अ्रथवा यद्द कि पाठक खीझ उठे और परेशान दो जाये--बात साफ़ है कि कथा-वस्तु एक विशिष्ट प्रकार की थी ओर दर कृदम श्राखल खोलकर दी आगे बढ़ाना था|




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