श्री षट् पाहुड़ | Shri Shat Pahud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) अर्थ--गर्भ जन्म तप श्ाान और निवाण इन पाँच कल्यानकों की परम्परा के साथ जीव चिश्ञ॒ुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करते हू अर्थात विश्युद्ध सम्यक्त होने से ही यद कल्यानक হাল ছ। दद्वण य गणुयर्त सहिय तहा उत्तमेण गोत्तेण लडण ये सम्मत्त अक्खय चुक्ख चमक्छच ॥२४ इृष्टा च मनुनत्व॑ सहित तथा उत्तमेन गत्रेण | ठच्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षय सुसं च मोर्ल च ॥ © ५ [ अथ- यदह जीव सम्द्क्त्व को धारण कर उत्तम गोत्र सदित महुप्य पर्याय को पाकर अविंनाशी छुख वाले मोक्ष को पाता हैं । विहर॑दि जाव जिणंदों सहसद्ठ छुलक्खणेह्ि संजुत्तों । चउतीस अइसयजुदों सा पडिमा थावरा भणिया ॥३१५॥ विहरति यावज्ञिनेन्द्रः सक्छ रक्षणे; संयुक्तः । चतुर्लिश दतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा मणिता ॥ अथे-- श्री जिनेन्द्र भगवान्‌ एक दक्ञार आट लक्षण सयुक्त आ चातीस अतिशय सदित जच तक्र विद्ार कस्ते द तव तक उनको स्थावर प्रतिमा कतं दं । भावा्थ--श्री तीर्थंकर केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात घर्मो- पदेश्च देते हुवे आर्य क्षेत्र विहार करते रहते दं पर्तु चद शारीर में स्थित होते हैं इस कारण शरीर छोड़ने अर्थात मुक्ति प्राप्त होने तक उनको स्थावर प्रतिमा कहते हें । वारस विह तब जुत्ता कम्मं खबिऊण विहवर्ेणस्प । बोसद चत्तदेहा णिव्वासा गणुत्तरं यत्ता ॥३६९॥ अथे --बारद प्रकार का तप धारण करने वाले मुनि चारित्र के बल से अपने समस्त कर्मो को नाद कर ओर वे प्रकार के दारीर छोड़ करः सर्वात्करए निर्वाण पद्‌ को भ्रात होतें! `




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