कर्मप्रकृति | Karmaprakriti
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
410
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वैदिकदशेन की प्रारभिक अवस्था से लेकर औपनिषदिक काल तक तो कर्मसिद्धान्त का क्रमवढ़
व्यवस्थित विवेचन वैदिकदर्शन मे उपलब्ध नहीं था, जैसा कि प्रोफ़े मालवणिया का कथन है--
आधुनिक विद्वानों को इस विषय ঈ कोई विवाद नही है कि उपनिपदो के पूर्वकालीन वैदिकसाहित्य भे
सार भौर कर्म की कल्पना का कोई स्पष्ट स्प दिखलाई नही देता था । जहां वैदिक ण्व पूरवव्तीं ऋषियो ने
जगत्-वैचित्य के कारण की खोज वाहरी तत्त्वों भे, ब्रह्म और माया, प्रकृति और पुरुष के रूप में की तो
ओऔपनिषदिक ऋषियों ने इस विविधता का आतरिक कारण जानने का प्रयास किया। फलस्वरूप काल, स्वभाव,
नियति, यदृच्छा, भूत, पुरुष आदि कारण सामने आए।
कालवाद---कालवादियो का कहना है--जगत के समस्त भाव और अभाव तथा सुख और दुख का मूल
काल ही है। काल ही समस्त भूतों की सृष्टि करता है, सहार करता है, प्रलय को प्राप्त प्रजा करा शमन भी
करता है। ससार के समस्त शुभाशुभ विचारों का उत्पादक काल ही है। काल ही प्रजा का सकौच-विस्तार करता
है । सब के निद्रामग्त होने पर भी काल ही जागृत रहता है । अतीत, अनागत एवं प्रत्युत्पन्न भावों का काल
ही कारण है। उसका अतिक्रमण नही किया जा सकता है ।
स्वभाववाद--स्वभाववादियो का कहना है किं काटो का नुकीलापन, मृग, पक्षियो के चिव्र-विचित्र रग, हस
का शुक्ल वर्णं शुको का हरापन मोर के रगबिरगे वणं होना, यह ससार का सारा कायं स्वभावं से हीं प्रवृत्त
होता है। बिना स्वभाव को कायं नही हो सकता !
नियतिवाद--नियतिवादियो का सिद्धान्त है कि जो कुछ होता है बह भवितव्यतावश होता है । जिस पदार्थ
की निष्पत्ति जिस रूप में होने वाली है, वह उसी रूप मे होती है। जो कार्य नही होने वाला है, वह লা
प्रयत करने पर भी नहीं होगा। जिस व्यक्ति की मृत्यु नहीं होने वाली है, उसे विष, (पौदजन) भी दे दिया
जाये तो उसकी मृत्यु नही हो सकती। जो कुछ भी होता है वह सब नियति से ही होता है।
यवृच्छावाब---परदृष्छावादियो का कहना है--कुछ भी कार्य होता है, वह यदृच्छा, अपने आप होता है। यदृच्छा
का अर्थं है अपने आप कायं की सि इ 1 इस वाद मे नियत कार्यकारण कौ स्थिति नही रहती ।
मनकलि्पित रूप से किसी भी कायं का कोई भी कारण मान लिया जात्राहै।
भूतवाद--भूतवादियो का केथन है कि जगत के सपूर्णं कायं भूतो से निमित ह । भूतपचक ही दस लोक
की उत्पत्ति के मूल कारण हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पच्र भूत कहलाते हैं।
पुरषवाद--पुरुषवादियो का यह मानना है कि सृष्टि का कर्ता, भोक्ता, नियन््ता सब कुछ पुरुष ही है। इसके
दो वाद प्रचलित है- ब्रह्मवाद गौर ईष्वरवाद 1 ब्रह्मवादी सारे जगत के चेतन-अचेतन, मूृत्ते-अमूर्त आदि पदार्थों का
उपादानकारण ब्रह्य को ही मानते हैं--
सर्व वे खलु इद श्रहय, तेह नानास्ति किचन ।
ईएयरवादी ईश्वर को ही अखिल जगत का कर्ता मानते हैं । ईश्वर के हिलाये बिता ससार का एक पत्ता भी
नही दिल सकता । जड एव चेतन तत्त्वो का सयोजक स्वय ईश्वर ही ह ।
लोकवैचिष्य का मूलकारण जानने के धिये उपर्युक्तं बादौ मे कु प्रयत तो किया गया है, किन्तु यह
प्रयत्न सत्य तथ्य को स्पष्ट नहीं कर सका। प्रत्येक प्राणी के सुख-ढु ख के रूप भिन्न-भिन्न हैं। एकसमान पुरुषार्थ
करने पर भी एक को लाभ होता है, दूसरे को हानि । एक सुखी बनता है, दूसरा दुखी। एक को विना प्रबल
किये अकस्मात् धन की प्राप्ति हौ जाती है तो दूसरे को लक्षाधिक प्रयत्न करने पर कार्षापण भी प्राप्त नही होता ।
इसके कारण की अन्वेषणा जैन और बौद्ध दर्शन मे उपलब्ध होती है। बुद्ध और महावीर ने ईश्वर आदि के
स्थान प्र कम को ही प्रतिष्ठित किया । जगतृवैचित्य का मूल कारण “कर्म है, यह उद्घोषणा की। ईश्वरवादियो
नै जो स्थान ईश्वर को दिया वही स्थान जैन या बौद्ध दर्शन मे कर्म को दिया गया है।
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