श्रीमती विश्वास | Shrimati Vishwas

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Shrimati Vishwas  by श्रीलक्ष्मीचन्द्र वाजपेयी - Shreelakshmichandra Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शीमती विश्वास ४१४ जीवन में शैलप्यृंग देखने का यह पहला अवसर था। अपने से बड़े वृद्ध-जगों पे छुना करता था कि पहाड़ बहुत भारी, बहुत ऊंचे, बड़ विस्तार मं होते है; लेकिन उनसे इमी वास्तविकता का चौंटी भर परिचय न লি सकाथा। श्राज देखता हूँ--ये इतने ऊंचे हैं कि बादल इनके पास से জু हुए चले जाते हैं | ये बादल से भी ऊँचे हूँ । ग्राकाश की नीजिसा उन पर ऐसी छाई हुई है, जसे यहु सारा संसार एक शामियाने के अन्दर आ गया हो और यह्‌ श्राकाश उसके ऊपर स्वच्छ चाँदमी की तरह तना हुआ हो |--और ये पत्थर ?--ये इतने, बड़े हैं कि संतार की कोई भी शर्ि, इसका कम्धा तक नहीं हिला सकती ! पता नहीं, थे कब से इसी तरह, सजग प्रहरी की भाँति खड़े, देश की रफ़्याली कर रहे हैं ! कितने युग बीत गये, बचपन श्र जवानी कितनी इनकी बीत गई, कया ये प्रारम्भ से ही ऐसे सपुष्द वृद्ध सहै है ! --एक हंसी खेल सई ।'''श्रोर इसका वक्ष कितना बलिष्छ है कि इनके रोशों को जड़ बनाकर पेड़-के-पेड़, जंगल-के-जंगल, खड़े हो गये है ! जितने ये ऊँचे हैं, उससे अधिक गहरे हैं श्रोर इनकी गहराई भी प्रदूभुत है । एक गहराई समाप्त नहीं होने पाती कि हूपतरी प्रारम्भ हो जाती है ।'' भरे ! यह से बया देख रहा हूँ ? श्रपने गाँव के, चंगर के, घरों में सूर्थ को सदा सामने ही उपता हुआ बेखता था, यहाँ देख रहा हे कि यह हमारी ऊँचाई से कितना नीचे है। मगर में यह्‌ क्या कह गया ? हमारी ऊँचाई है कहाँ 7--हम पहाड़ पर चल रहै हँ, इस लिए यहं ऊँचाई तो उसी की है ! हमारी देल झागे बढ़ रही है। कभी-कभी उसमें ऐसे मोड़ आते हें, कि सबसे पीछेवाले कम्पार्टमेण्ट दाँई आँख के सामने रेंगते हुए जान पड़ते हैं ।' अच्छा, ये पहाड़ कभी आपस में बातें नहीं करते ? इनके १५




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