पुरस्कार | Puraskar

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Puraskar  by कृष्णनन्द गुप्त - Krishnanand Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरस्कार वैसी ही है,' कहकर सुखलता मनोयोग-पूवक अपना कार्य करती रही | इतने में हरी नेत्र खोलकर तीण स्वर में वड़बड़ावा--महात्मा আাঁঘী की जय [5 इस नाम को सुनकर नौकरानी कुछ कहना चाहती थी। पर सुखलता ने वीच दी में कहा--'गेंदन की माँ, ठुम जानती हो, वह महात्मा गाँधी कहाँ रहते हैं ? नौकरानी इस विषय में अपनी अ्नभमिशता प्रकट करके बोली--- “मैं क्‍या जानू बहूजी ! जहाँ तुम, वहाँ सें । सुनते है, बड़े महात्मा हैं । सिर्फ एक लेंगोटी लगाकर रहते और दिन-मर चरखा कातते हैँ। जब गाँव में आ रहे हैं, तव उनके दर्शन ज़रूर करूँगी वहूजी ! सुखलता चकिकर बोली--'गोँव में कौन आ रहे है ! गाँधीजी ? नौकरानी ने आरचर्य से मुंह बनाकर कहा-- अरे ! प्रता ही नहीं, बहूनी ! इसका तो गाँव-गाँव में शोर हैं। उनकी अगवानी के लिए सढ़के साफ हो रही हैं, घर लिप-पुत रहे हैं, उचन्दा इकटा हो रहा है, और न-जाने क्या-क्या इन्तिज्ञाम है |? मुखलता वोली--भमुझे अपने घर की ही ख़बर नहीं, फिर वाहर की ख़बर लेने कौन जाता है ! तू देखती है, यहाँ से उठ नहीं पाती | तो गाँधी जी कब आ रहे हैं! आज से तीसरे दिन | । “चले श्यावे । सभे तो क ॒श्रच्छा नदीं लगता, गेदन क्री मा !' कहकर वह ऑचल से.अपने नेत्र पोछ्लने लगी। ৩.




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