तत्त्वज्ञान | Tattav Gyan

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Tattav Gyan by आनंद स्वामी सरस्वती - Anand Swami Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १७ यह सब-कुछ देखकर हृदय रखनेवाले के रोमांच हो जाता है और वह पुकार उठता है--क्या इस दयनीय श्रवस्था से, भंवरों तथा मंभ- धारो से भरपुर इस संसार-सागर से पार हो जाने का कोई उपाय है या नही ? डरो मत, उपाय है तब उसे एक ध्वनि सुनाई देती है : मा भैष्ट विद्वस्तव नात्ति नाशः संसारतरणेष्स्त्युपायः । येनेव याता यतयो5स्थ पारं तमेव सार्ग तव निर्विशासि ।। हे विद्धान्‌ ! तू उर मत, तेरा नाश नही होगा । सपार-सागरसे त्रने का उपाय है । जिस मागं से यतिजन द्रसके पार गये है, वह्‌ मागं मै तुभे दिखाता हं ।' वह मार्ग तत्त्वज्ञान ही का मागं है । जब तत्त्वविवेकं द्वारा यह्‌ जान लिया जाय कि यहु सारा दश्य-जगत्‌ क्या है, तो इस मनुष्य- शरीर तथा लोक-लोकान्तरो श्रौ र देश-देशान्तरो का मूल्य समभे श्रा जाता है । तव मानव मानवता को रुदन करने का अवसर नही देता । तब मनुष्य मनुष्य का रक्त नही पीता । तब एक मानव-दल दूसरे मनुष्यो का सहार नही करता श्रपितु उनसे प्रेम करता है, उन्ह श्रात्मज समभता है; श्रपनादही रूप ग्रौरश्रपना ही साथी, सम्बन्धी श्रौर प्यारा मानने लगता है! मज्जा, श्रस्थि, मेद, मांस, रक्त, च॑, त्वचा--ईइन सात धातुश्र से बने मानव-शरीर के लिए फिर वह दूसरों के नाश कायतत नही करेगा । दूसरो की हानि या नाश की भावना केवल इसलिए उत्पन्न होती है, ताकि विषयो का उपभोग किया जा सके । विषयो--शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध--का ज्ञान करानेवाले ज्ञानेन्द्रिय श्रवण, त्वचा, नेच, जिह्वा ग्रौर ध्राण--हैं । जब ये ज्ञान कराते है तो फिर पाँच कर्मेन्द्रियो--वाक्‌, हस्त, पाद, गुदा और उपस्थ “का झुंकाव कर्मों की ओर हो जाता है । यदि तत्त्वविवेक से यह प्रकट हो जाय कि सारे पदार्थ जड़ हैं और ये मुझे मेरी सेवा, सहायता तथा कार्य-सिद्धि के लिए मिले है, तो मानव फिर विषयो मे फंसेगा नही, अपितु विषयों को विष समझकर दूर ही से त्याग देगा। हाँ, विष




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