श्री जैन सिध्दान्त भास्कर ५० | The Jaina Antiquary Vol 50

1010/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : श्री जैन सिध्दान्त भास्कर ५०  - The Jaina Antiquary Vol 50

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

ऋषभचन्द्र फौजदार - Rishabhchandra Faujdar

No Information available about ऋषभचन्द्र फौजदार - Rishabhchandra Faujdar

Add Infomation AboutRishabhchandra Faujdar

गोकुलचंद्र जैन - Gokulchandra Jain

No Information available about गोकुलचंद्र जैन - Gokulchandra Jain

Add Infomation AboutGokulchandra Jain
Author Image Avatar

राजाराम जैन - Rajaram Jain

प्राकृत- पाली- अपभ्रंश- संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर राजाराम जैन अमूल्य और दुर्लभ पांडुलिपियों में निहित गौरवशाली प्राचीन भारतीय साहित्य को पुनर्जीवित और परिभाषित करने में सहायक रहे हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य के पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करने, शोध करने, संपादित करने, अनुवाद करने और प्रकाशित करने के लिए लगातार पांच दशकों से अधिक समय बिताया। उन्होंने कई शोध पत्रिकाओं के संपादन / अनुवाद का उल्लेख करने के लिए 35 पुस्तकें और अपभ्रंश, प्राकृत, शौरसेनी और जैनशास्त्र पर 250 से अधिक शोध लेख प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त किया है। साहित्य, आयुर्वेद, चिकित्सा, इतिहास, धर्मशास्त्र, अर

Read More About Rajaram Jain

लालचंद जैन - Lalchand Jain

No Information available about लालचंद जैन - Lalchand Jain

Add Infomation AboutLalchand Jain

शशिकांत - Shashikant

No Information available about शशिकांत - Shashikant

Add Infomation AboutShashikant

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
(19 ) ( क्रमाक 245-249 ) कमंप्रकृति ग्रन्थ ( नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, क्रमाक 272) करमें-विपाक (अनन्दसूरि क्रमाक 273 ', कातिकेया- तुप्रक्षा ( स्वामिकुमार ऋ्रमाक 276) लोकबर्णन (अपूर्ण, ऋ्रमाक 282), मूलाचार , कुन्दकुन्द, क्रमाक 292 ) पचसप्रह (रनर्कौति क्रमाक 30५) प्रतिक्रमणसूव्र (क्रमाक् 316) सबोव-पवासिझा (क्रमाक 337) सत्वत्रिभगी (रगनाथ भट्टारक क्रमाक 361) सिद्धान्तसार (जिनेन्द्रदेवाचार्य, कऋराक 374), वसुतन्दिश्लावक्राचार (क्रमाक 443 ) ब्रह्महेमचन्द्र क्रमाक 384 ) तत्वसार ( क्रमाऊ, 393) त्रलोकप प्रज्ञति प्रशस्ति (प* मेंघावी क्रमाक 420-421) त्रिभमगो ( कनक्नन्दी, संद्धान्तिकि चक्रवर्तीं क्रमाक 422 त्रिलोकसार (नेभिचन्द्र, क्रमाक 424 ) प्राकृत -दब्राकरण ६8० अध्याय (क्रमांक 488) 1 শ্রাহি। उक्त पाण्डुलिपियाँ शो रमेनो प्राकृत-साहित्य तथा समकालीन भाषा लिपि के इतिहास-लेखन की दुष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखती है ! पूर्व मध्पफाजोन (अर्थात्‌ रातिकालीन) हिन्दी मे महाकवि भूदरदास द्वारा लिखित पाश्वेपुराण को दो प्रतिया (क्रमाक 91 तथा 92) भवन मे सुरक्षित हैं । दिन्दी भापा एवं साहित्य के महारथी विद्वान प » हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे हिन्दी भाषा का उत्क पट कोटि का महा काव्य माना है | पुर्वाचार्यों द्वारा निर्धारित महाकाञ्य के राभी लक्षण इसमें विद्यमान है। इसका ऊथानक पौराणिक होति हए भी वह्‌ अत्यन्त रोचक मर्म॑स्पर्शी एव आत्मपोपक्र हु । इस ग्रथ की गरिमा एव लोकथ्रियता का इसीसे पता चलता हैं कि इसका प्रतिलिपि इवेवाम्बर मातानुयायोी ऋषि हसराज जी के शिष्य रामसुखदास ने वि* स० 856 को कात्तिक सुदो नौवी बुधवार के दिन जाहजहानात्राद (दिल्ली) मे वेठकर की थो। यही प्रतिलिपि ज॑० सि० भण० में सुरक्षित 3 । इसके अतिरिक्त हिन्दों सस्कृत प्राकृत एवं अपक्रण की লিশিন विषयक अनेक पाण्ड्लिपियाँ यहाँ सुरक्षित हैं, जिनका विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ सूची में अक्ति किया गया है। प्राचीन पाण्डुलिपियाँ को विवरणामक एत्र स्व्रीकृत सूची तशर करना स्वय में एक कठिन काय है फिर भी डॉ० ऋषमचन्द्र जन फौजदार श्री लितेश जैन एवं अन्य साहित्य सेवियों ने जिस एकाग्रता से हसे तैयार किया है वह सराहनीयदहै। जेन सिद्धान्त भवन के संरक्षक सचालक श्री बाबू सुबोध कुमार जैन का उत्साह भो अत्यन्त सराहनीय है क्योकि उनकी प्रेरणा के बिना उक्त बहुमूल्य कार्य सम्भव न होता। पूर्ण विश्वास है कि शोधार्थी एव स्वाध्यायार्थगण इसका पूर्ण सदुपयोग कर तथा अपने सुचिन्तित सुझाग देकर हमें उपकृत करेगे। क




User Reviews

  • Ishita

    at 2020-01-14 07:43:50
    Rated : 10 out of 10 stars.
    "Great Research Journal!!"
    Great Research Journal!
Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now