प्रवचनसार प्रवचन भाग - 11 | Pravachanasaar Pravachan Bhag - 11

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Pravachanasaar Pravachan Bhag - 11 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाधां २४८ १९ आचाये श्री कुन्दकुन्ददेबके बचपतनसें साताकी भावत्ता -- जिस आचार्यका बताया हुआ यह ग्रन्थ हैं वे जब बच्चे थे, मानो साल छः माहके तो उसको मां हिडोला डालकर इन्हें कुलाती थी ओर हिंडोला सूलाकर प्रमोद आकर सां कुछ गीत गाती थी । वह मां उन गीतोंको उस बच्चे से ही कहती थी। हम सबकी माताएँ ऐसा गाती हैं कि तू राजा है; तू ऐसा बनेगा) तू अमुक है, किन्तु कुन्दकुन्दकी मां कुन्नाती हुईं वो्ती थी | क्‍या ! श्ुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि । संसारमायापरिवर्जितोऽसि । संसार. स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां, श्रीकन्दञघन्दं जनीदसुचे 1 श्रीढुन्दङुन्दकी मां कन्द्‌- छन्दसे कहती है कि वेदा तू. शुद्ध है, सवं परदरव्योसे निराला, ज्ञानमात्र है । रेसे कहकर फुलाती ज। रही है । देखो बच्चेको अध्यात्मके दृर्शंन जल्दी कराये जा रहे हैं। तू ज्ञानी है, क्ञाचका निधान है, निरंजन दै, द्रस्यकर्म, भावकर्म, लोकम सस्त अंजनोंसे रहित तेरा एक शुद्धज्ञायक स्वभाव है) तू संसारकी मायासे अलग है, इस संसारके स्वप्तके मोहकी सिद्राको छोड़ दे। इस प्रकार ्रपने वालकके प्रति छन्दकुन्दकी मां ठेसी भावना रखती है । जिस वच्चे प्रति मां वाप बचपनसे ही पवित्र भावनां स्ख तो उस वच्चेकी प्रवृत्ति उच्च बसेगी। उदार बनेगी । । शुभोपयोगग्रधानी मुन्ियोंकी प्रश्नत्ति- ऐसे ही संगमें रहने वाले प्रसुख शुरुकी संघस्थोंके प्रति भावना रहती है । इनका आर्सा उच्च विचार का बने) उच्च आचारका बने) ऐसे शुभोपयोगी श्रमणोंकी अग्नत्तिपिद्ध प्रवृत्ति है । जित्तेन्द्रकी पूजाके उपदेशकी प्रवृत्ति भी शुभोपयोग है । यह शुभोपयोगी श्रसणोकी बात्त कही जा रही है । ये सब प्रवृत्तियां शुभोपयोगियोंके ही होती ) शुद्धोपयोगियोके नहीं होती है । कहीं सुनि दो डिजाइसोंमें नहीं हैं कि कोई मुनि शुभोपयोगी होता है ओर कोई शुद्धोपयोगी होता हो। हां, दो डिजाद्रने एेसी दो सकती है कि को सुनि केवल शुद्धोपयोगी है ओर कोई सुनि कदाचित्‌ शुद्धोपयोगी भी हो नौर कमी श॒द्धोपयोगी हे । भैया ! रेखा यनि कोई नहीं दोगाः जो प्रारम्भसे क्ञेकर अन्त तक केवल शुभोपयोगी ही होता हैं। यदि कहीं ऐसा है तो यह एक दुकान है, बनियाई काम दैः घम॑- साधना नहीं है । मुनिजलोंके शुभोपयोग हो जानेका कारण-- म्ुुनिजनोंके शुद्ध आत्म- तत्त्वका दही `लक्ष्य रहता है, पर कपायकण शेष है, इस कारण उनके राग निकलता तो है पर वह राग शुद्धं श्रास्मद्रन्यके उपलम्भक्ते परयत्नम लगता हुआ धर्मौशमाजलोंफ़े उपकार ओर सेबासें परिणत हो जाता है। कोई प्रश्न- कर्ता यहां यह शंका करता है क्ति धो पयोगी जीचको भी किसी कालम




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