समयसार | Samya Saar

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Samya Saar  by मोतीलाल जैन - Motilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९-१० ११ १३ श १६-१८ * विषयावुक्राणिका ७ जीवाजीवाधिकार पृष्यबंधकारक मंगलाचरण, समयसारग्रंथरचना की प्रतिशा ओर प्रत्य का प्रामाज्य | स्वसमय ओर फ्रसमय का स्वरूप । समयभूत अनस्तधर्मात्मक सभी वब्य एकक्षेत्रावगाही होनेपर भी अपना अत्तित्व बनाये रखते हे । जोवद्रब्य भी समयभूत अनन्तधर्मात्मफ स्वतंत्र द्रव्य होनेसे उसके बंध होगे का प्रतिपादन निशुचयनय की दृष्टि से सिथ्या है और सो क्रारण उसका द्वेविष्य सहीं बनता। आत्मा के रागाविधावों से रहित एकत्व को प्राप्ति की दुर्लभता । जिसको स्याद्रादविद्या के द्वारा, युक्तितयों के हारा, गरुजनों से प्राप्त ज्ञान के हारा और अनुभवजन्यज्ञान के द्वारा अभेदरत्नत्रप बेः रूप से परिणत हुए मिथ्याश्वरागावि- रहिते आत्मा क्रा दशंन करामेकी आचायं प्रतिह्षा ररबे हे और उस आत्मवर्शान को स्वानभपप्रत्यक्ष के द्वारा परीक्षण करके प्रमाणभूल भानना चाहिये ऐसा कहते है । शुद्धव व्याधिकनय की दृष्टि से आत्मा न प्रयत्तहै बौर न अप्रमत्त । वह सिषं शायकप्तावरूप हो है। व्यवहारनय की दृष्टि से यद्यपि ज्ञानी आत्मा रत्नत्रयात्मक है तो भी निःत्चण्नय फी दृष्टि से वह सिर्फ जाता ही है-वह न ज्ञान है, त चारित्र है और न दर्शन है । यद्यपि. शुद्धनिन्‍वयनय की दृष्टि से आत्मा ज्ञायकर्ावरुप है, वर्शन-झाब- चारिश्ररूप नहीं है तो भी छोक़ों को समझानके लिथे वर्शन-सान- वारिश्ररूय भवो का अबलंब लेना आवधज््यक होनेसे परमाथंप्रतिपादक व्यवहारनय अनुधरणीय है । ष्यवहार परमां का प्रतिपादक होनेसे मास्मद्रष्य की सिद्धि करता है । शुद्धात्मा का जो अनुभव करते है उनकी दृष्टि से ष्यवहारनय अनुसरण के योग्य महँ है गौर जो श॒द्ध आत्मा के स्वरूप का अनुभव नहीं कर सकते उनकी दृष्टि से व्यवहारनय अनुसरण के योग्य रै! व्यकवटारनय मभतार्थं है ओर कथंचित्‌ भृतार्थ भो है| शुद्धनय भताथ है जो मूतायं का ग्नेय करता है वह हो सम्यरदृष्टि होता है । विज्ञानरूप श॒द्ध त्मस्वरकूप का अनुभव फरनंयार्ूे को दृष्टि सें शुद्दइनय प्रयोजनवान होती है ओर जो जीव अभेदरत्नत्रय के रूप से परिणत हुआ सही होता-वरान- सम्यरदष्टि होता है उसके व्यवहारतय या अवुद्ञनिश्रयनय प्रयोजनवान्‌ होती है । फ्याथंरूप से जाने गये सवपदार्थ सम्पक्त्थ का कारण होनेसे सदभतव्यवहाश्नय की दृष्टि से सम्यक्व ह मोर सात्मस्वरूपानुभृति शुद्धनय कौ दृष्टि से प्म्यक्स्वरूप हि । जो भस्मा को द्रष्यकमं मौर नोकमं से अस्पृष्ट, नरनारकादिपययों मे अरिघ्न, सधी अवश्याओं में अवस्थित और भावकम रहित वेखता है -मनुभव करता ह वह धाद्धपय है अथवा सुद्ध जलात्मा ली सनृभूति हि शुदनय ह । शुद्ध आत्मा के अनुभव से उसको लानरूपता हौ वनभ में आती है । लो भात्मसाध्षमा करता चाहता है उसको ष्यथहारनथ से सम्यग्वर्शनशानचारित्र का ही तिरंतर सेचन करना चाहिये; क्यों कि गिश्मय्थण को दृष्टि से रत्मतय आत्मकप ही ॐ षु. शं. ११६ १४१ १५५ १६० १६४ १६७ १७५ १७९ १८४ १८८ १९४ २०३ २२१ २२७




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