ब्रज लोक वैभव | Braj Look Vaibhav
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
578
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
लेखक व साहित्यकार का परिचय
नाम - मोहनलाल मधुकर
जन्मतिथि- 13 अगस्त, 1936
पिता- पं. भँवर सिंह, व्यवसाय-कृषि
माता- श्रीमती कम्पूरी देवी, सद्गृहिणी
जन्म स्थान- ग्राम धौरमुई, जिला-भरतपुर (राजस्थान)
शैक्षणिक योग्यता- एम. ए. (हिन्दी), एम.एड.
पत्नी- श्रीमती निर्मला देवी, सद्गृहिणी
पुत्र- 1. डॉ. महेश कुमार शर्मा एम.डी. (आयुर्वेद), एसोसिएट प्रोफेसर राजस्थान आयुर्वेद विश्वविद्यालय, जोधपुर
2. अनुराग मधुकर एम.एस.सी. कृषि सांख्यिकी (स्वर्णपदक प्राप्त), कम्प्यूटर प्रोग्रामर राजस्थान सचिवालय, जयपुर
3. आदर्श मधुकर, एम.ए. (हिन्दी) बी.एड., सर्टीफिकेट कोर्स इन कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग, एम.जे.एम.सी., विशेष संवाददाता
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)होय। या कारन लोक-जीवन सौं लोकगीतन कूँ निकासि दियौ जाय तो जीवन सूनौ-सूनी रह जायगौ,
मिरस्थक अर् बेकार लगिवे लगैगौ !
जिन दिनान में आजु जैसे नाना प्रकार के खेलकूद अरु मनोरंजन के आधुनिक वैज्ञानिक साधन
नोय हते নিল বিলাল में मेले-ठेले, कुश्ती दंगल अर लोकगीत-संगीत सम्मेलनन के आयोजन हौ मनं
बहलाइबे के उत्तम माध्यम है । बसंत रितु, होरौ-दिवारी अरु न्यरे-न्यार त्यौहास कै, उच्छवन के ओसरन
पै नकौ आयोजन होयौ करतौ । लोकगीत सम्मेलन इन आयोजनन कौ सिरमौर रहतौ 1 आजू लोकमीत
ख्याल, दंगल, रसिया सम्मेलन, भजन-जिकडी, फूलडोल, आल्हा, ढोला-संञ्चा गायकौ, नीट॑की येल
आदि के आयोजन देखिवे-सुनिवे कूँ मिल जाँय हैं ।इन आयोजनन में ढ़ोलक, सारंगी, वाँसुरी, इकतारा,
चिकाड़ा, खरताल, डंडा, नगाड़े आदि साज-बाजन पै लोकगायक लोकगीतकार अपनी उत्तमोत्तम रचनान
कौ हिलमिलकै गायन कर है, नोँचकूद सं अपनी कला कुसलता में निखार लावे हं । इन ओसरन पै
इकठोरौ जनसमूह लोकगीतकार के सुमधुर स्वरन सौं आनन्द विभोर है-है जाइ { लोककवि कौ कही
भई कहन घर-घर मोहि गहराई लौं घर करि जायौ करै हे । तबई तौ लोक साहित्य के न्ये -न्यारे रूपन
में लोकगीतन कौ सबसों ऊँचौ स्थान है।
आनंद सौं उमंगिते हैकै गुनगुनाइबी अरु गाइवौ मानव कौ सहज स्वभाव है! यासों जाहिर होई
कै लोकगीत उतने ही प्राचीन हैं, जितनी मनुष्य जाति। या कारन लोक-मानस सुदूर अतीत माँहि जब-
जव आनंदित, उल्लसित, उमंगित अरु हिलोरित भयो होइगौ, तव-तव वाके हिरदे के लयवद्ध स्वर
अनायास मुखरित भये होगे अरु बिन्नँ लोकगीतन कौ रूप धारन कियौ होडगौ । तयई तौ लोकगीतन
महि लोक की युग-युगीन पावन वाणी की साधना समाहित रही है । चिन्मे लोकरुचि, लोकरीति अर
लोकनीति की त्रिवेनी कौ अनूठी संगम हू देखिये कूँ मिले है।
लोकगीतन माँहि ইজ की सभ्यता के विकास की, वाके जीवन की गतिविधीन की अरु सांस्कृतिक
धरातल के न्यारे-न्यारे स्तरन की मनोरम झांकी मिले है। लोकगीत अपने युग के लोक-सत्य कौ सूधौ-
सच्चौ उद्घाटन करें हैं। लोकगीतन सौं युगीन जातीय जीवन के सच्चे सुख-चैन की झलक मिली है,
हिरदे की चुभन अरु कसक कौ यतौ चले है। लोकगीवन माँहि लोक-मनोविज्ञान के अध्ययत कौ वहौत
सो माल-मसातौ भ्यौ पर्यौ है।
पच्छिम देसन के विद्वानत्रैं भारत कूँ लोकगीतन कौ देस बतायौ है । फिर ब्रज कौ तो कहनीं ही
कहा! जहाँ 'डार-डार अरु पात-पात पै राधे-राधे होइ ' है। यों ती संसार की सिगरी भाषा-बोलीन माँहि
लोकगीतन की अटूट परम्परा रही है परि ब्रजभाषा सी मिठलौनी और कोऊ भाषा नाँय। जिही कारन
है कै ब्रज लोकगीतन कौ अमिट प्रभाव सिगरे देस पै, सब भाषा-बोलीन पे पर॒यो है।
ब्रज लोकगीतन के स्वरन सौं वातावरन इतनौ सुन्दर, सुमधुर अरु सरस है जाय के कछू कही
नॉय जाय सके । ब्रज-लोकगीतन कौ क्षेत्र इतनौ व्यापक है के विनसों कोऊ महत्वपूर्न विषय अछूती नाँहि
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