अथ वेदान्त दर्शन | Ath Vedanta Darshan

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Ath Vedanta Darshan  by माधवाचार्य - Madhavacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वेदान्तपदाथमकाशसाईतम्‌ । ` , (११) जीवको प्रापक जौर मनोमयादि गुणवारे बरह्मको आस्त करने योग्य कहा गया है इससे माल्म , होता है कि सवत्र ब्रह्की ही उपासना विहित है। . | शब्देविशेषाच्च। १-२-५९ । ` का , छा ०-२३-१ ४-रमे कहा गया है, कि एव मे आत्मा5न्तहंदये-यह मेरा आत्मा हृदयमें है यहां রা (मे) षष्टी विभक्ति तथा परमात्मवाचक आत्मा प्रथमानिर्दिष्ट है, ये जीव और ` परमात्मा दोनों शब्दविशेषसे कहे गये हैं इस लिये मनोमयादिगुणोंसे जीवकी उपासना नहीं, किन्तु ब्रह्मकी ही है.। ह स्मृतेश्च । १-२-६। च~जौर स्मृतेः--गीता भी जीवको उपासक भौर ब्रहमको उपास्य वता रही है “सर्वस्य चाहं हदि . सन्निविष्टो मन्तः स्पृतिक्ञीनमापोहनं च » इत्यादि गीतामें कहा है, कि में सबके हृदयोमें बैठा हुआ हूँ, मेरेसे ही स्मृति ज्ञान आदि होते हैं, जो इस प्रकार मुझको पुरुषोत्तम जानता है वह सब भावोंमें मुझे भजता है । यहां जीवको उपासक और ब्रह्मको उपास्य कह दिया है। ' अभेकोकस्त्वात्‌ तदव्यपदेशाच्य नेति चेन्न निचाय्यत्वादेवं , व्योमवच्च । १-२-७। अभकौकस््वात्‌-छोटेसे हृदयस्थानमे रहनेवाला होनेके कारण च-और तद्व्यपदेशात्‌-छा०-२-१४-३ म अणीयान्‌ बरीहिवां यवाद्वा सष॑पादया श्यामाकाद्वा स्यामाकततण्डुलाद्वा। यह भेरे हदयमे रहनेवारा आत्मा वीहिसे मरसोंसे समासे और समाके चावलसे भी छोटा है इस श्रुतिमें,छोटेका निर्देश होनेके : कारण न-वो अंह नहीं जीव है इति-ऐसा कहो चेत्‌-'तो न-नहीं कह सकते एवम्‌-अणीयत्व आदि रूपसे यानी छोटेपनेंसे निचाय्यत्वात-उपासनाकरनेके योग्य होनेसे छोटेपनेका व्यपदेशा करिया गया है च-और व्योमबत-वह छोटापना भी घटाकाशकी तरह कहा गया है एवम्‌ अगाड़ी इसी श्रुतिमें ज्या- : थान्‌ वा पृथिव्याः वह प्रथिवीसे भी बडा है इत्यादिसे स्वाभाविक वड़ापना कह दिया है। . उपासनाके स्थि भणीयत्वका व्यपदेश किया गया है ऐसे ब्रह्मकी भी उपासना हो सकती है.। .. .. सम्भोगप्राप्निरिति चेत्‌ न वैशेष्यात्‌ । १-२-८। सम्भोगप्राप्तिः-थरीरमें रहनेवाठे जीवकी तरह शरीरमें रहनेवाले परमात्माको भी सुख दुःखॉँकी : ग्राप्ति होगी, इति-ऐसा कहो चेत्-तो न- नहीं कह सकते क्योंकि वैशेष्यात्‌- मुण्डक-?ै-६ में जीवसे ईश्वरम विदेषता बताई हे किं अनश्नन्‌ अन्यो $मिचाकशीति-ईश्वर विना भोगे प्रकाशता है, इस विदेषतासे द्रम मोग-प्राति नदीं है । जीवकी तरद ॒दैखवर खख दुःखादिका भोक्ता नही, यह जीवके साथ देहमें रहनेवाले इश्वरमें विशेषता है ८ सर्वत्र प्रतिद्धयधिकरणं समाप्तम्‌ ) ` ` क अत्ता चराचरभ्रहणात्‌। १-२-९।. _ . , चराचरहणात्‌-2०-अस्य ब्रह्म च क्ष्रं च चोमे भवत ओदनः । म्छुयंस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः १-२-२७ में-कहा है कि जिसके পান্তা, और क्षत्रिय इससे उपलक्षित चर. और अचर चावढोंके भातकी तरह खाजाता है एवम्‌ सबका मारक मौत इसके मातका धृत है, इस श्तिमें चराचरके अहणसे अत्ता-अत्ता यानी खानेवाछा परमात्मा है दूसरा कोई भी नहीं है। _>ब संसारंका संहती विष्णुके सिवाय दूसरा कोई नहीं है क्योंकि चराचरका अत्ता सिवा इसके . दूसरा कों नहीं दो सकता | ४




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