चैराहा | Choraha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)“मैंने: तो कभी तुम्हारी उपैक्षा नहीं की । मैंने तो केवल सत्य ही कहा
है जो मन के भीतर है, केवल वही स्पष्ट रूप से तुम्हारे आगे खोलकर
रख दिया है । संसार का सबसे यरित्रहीन मनुष्य सबसे अधिक सुखी है !
साधना मानों जीवन का पथ नहीं है, उसका कोई अंग भी नहीं है। मैं
सुखी रहना चाहता हूँ हेम ! संसार का सबसे सुखी मनुष्य वनना चाहता
हूँ । साथना को लेकर मन को कभी सुख नहीं मिला । जीवन को बाँध कर
मेंने कमी भी आनन्द का अनुभव नहीं किया 1”?
“किन्तु विषपान करके शरीर को गला डालना ही क्या आपका
आनन्द है १” |
निशीय आश्चय से हेमनलिनी की ओर ताकने लगा, “किसे विषपान
कहती हो हेम ? मदिरा को ! सुख-दुख से जो एक नए विश्व का निर्माण
करती है उस मदिरिा को ! में पूछता हूँ हेम कि साथू-महात्माओं द्वारा बुरी
वस्तु, कही जाने पर ही कोई वस्तु दूज्ित तो हो नहों जायेगी | मदिरा की
तरंगों में लीन, नारी के मधुर सोन्दर्य को पलझं में समेटने पर जो आनन्द
मिलता है उसे तुम नदीं समफ़ सकरोमी ! एक बार पीकर देखो तो कहता
हूँ फिर कभी तुम उसकी अव्रहेलना नहीं कर सकती ।”
` देमनलिनी का मन मानो एकवारगी वेदना से क्षुब्ध हो उठा | उसने
कहा, “क्या पापों को लेकर कभी आपके सन में घृणा नहीं उपजी ?” क्या '
इस दूषित आनन्द के परे आपने किसी दूसरे की कल्पना ही नहीं की ?”
तव निशीथ ने पने मेँ स्वयं को खोकर धीम स्त्रर में कहना आरम्भ
किया, “कभी-कभी सोचता हूँ कि तुम्हें छोड़ दूँ, यह सब छोड़ दँ। इतनी
ममता-मेह, दया-माया तो अच्छी नहीं। इसका न आदि है न अन्त ।
एक वार हुआ भी ऐपा ही | यह सब छोड़-छाड़ कर जीवन-अन्धन से बोध
डाला । उसी राह पर आँखें मूँद कर चलने लगा। तभी लगा मानो सब
संगी-साथी, अपने-पराये एक-एक छूटे जा रहे हैं ! दूरी बढ़ती जा रही है
आगे-पीछे, ऊपर-नीचे कहीं कोई नहीं रह गया है। केवल एक शत्य है जो
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सन आण से सरता जा रहा हैं । तभी जी घबराने लगा। लगा साधना
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