चैराहा | Choraha

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Choraha by रमेश चन्द्र - Ramesh Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“मैंने: तो कभी तुम्हारी उपैक्षा नहीं की । मैंने तो केवल सत्य ही कहा है जो मन के भीतर है, केवल वही स्पष्ट रूप से तुम्हारे आगे खोलकर रख दिया है । संसार का सबसे यरित्रहीन मनुष्य सबसे अधिक सुखी है ! साधना मानों जीवन का पथ नहीं है, उसका कोई अंग भी नहीं है। मैं सुखी रहना चाहता हूँ हेम ! संसार का सबसे सुखी मनुष्य वनना चाहता हूँ । साथना को लेकर मन को कभी सुख नहीं मिला । जीवन को बाँध कर मेंने कमी भी आनन्द का अनुभव नहीं किया 1”? “किन्तु विषपान करके शरीर को गला डालना ही क्या आपका आनन्द है १” | निशीय आश्चय से हेमनलिनी की ओर ताकने लगा, “किसे विषपान कहती हो हेम ? मदिरा को ! सुख-दुख से जो एक नए विश्व का निर्माण करती है उस मदिरिा को ! में पूछता हूँ हेम कि साथू-महात्माओं द्वारा बुरी वस्तु, कही जाने पर ही कोई वस्तु दूज्ित तो हो नहों जायेगी | मदिरा की तरंगों में लीन, नारी के मधुर सोन्दर्य को पलझं में समेटने पर जो आनन्द मिलता है उसे तुम नदीं समफ़ सकरोमी ! एक बार पीकर देखो तो कहता हूँ फिर कभी तुम उसकी अव्रहेलना नहीं कर सकती ।” ` देमनलिनी का मन मानो एकवारगी वेदना से क्षुब्ध हो उठा | उसने कहा, “क्या पापों को लेकर कभी आपके सन में घृणा नहीं उपजी ?” क्या ' इस दूषित आनन्द के परे आपने किसी दूसरे की कल्पना ही नहीं की ?” तव निशीथ ने पने मेँ स्वयं को खोकर धीम स्त्रर में कहना आरम्भ किया, “कभी-कभी सोचता हूँ कि तुम्हें छोड़ दूँ, यह सब छोड़ दँ। इतनी ममता-मेह, दया-माया तो अच्छी नहीं। इसका न आदि है न अन्त । एक वार हुआ भी ऐपा ही | यह सब छोड़-छाड़ कर जीवन-अन्धन से बोध डाला । उसी राह पर आँखें मूँद कर चलने लगा। तभी लगा मानो सब संगी-साथी, अपने-पराये एक-एक छूटे जा रहे हैं ! दूरी बढ़ती जा रही है आगे-पीछे, ऊपर-नीचे कहीं कोई नहीं रह गया है। केवल एक शत्य है जो 2 सन आण से सरता जा रहा हैं । तभी जी घबराने लगा। लगा साधना [१४




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