रइधू - ग्रंथावली प्रथम भाग | Raidhu Granthavali Pratham Bhag

Raidhu Granthavali Pratham Bhag  by राजाराम जैन - Rajaram Jain

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प्राकृत- पाली- अपभ्रंश- संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर राजाराम जैन अमूल्य और दुर्लभ पांडुलिपियों में निहित गौरवशाली प्राचीन भारतीय साहित्य को पुनर्जीवित और परिभाषित करने में सहायक रहे हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य के पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करने, शोध करने, संपादित करने, अनुवाद करने और प्रकाशित करने के लिए लगातार पांच दशकों से अधिक समय बिताया। उन्होंने कई शोध पत्रिकाओं के संपादन / अनुवाद का उल्लेख करने के लिए 35 पुस्तकें और अपभ्रंश, प्राकृत, शौरसेनी और जैनशास्त्र पर 250 से अधिक शोध लेख प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त किया है। साहित्य, आयुर्वेद, चिकित्सा, इतिहास, धर्मशास्त्र, अर

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है. लिखकर उसीके साथ पंक्ति संख्या देकर यह सूचना दी है कि अमुक संख्याकी पंक्तिमें अभुक क्षब्दमें उस वर्णको जोड़ा जाना है। यदि ऊपरवाले हॉसिएमें वह वर्ण छिखा गया हो तो पंक्ति संख्या ऊपरसे হিললা चाहिए और यदि नीचे हो, तो नीचेकी ओरसे गिनना चाहिए । यदि लिखते समय कोई बर्ण भूलसे आगे पीछे लिखा गया हो तो उसपर १, २ की क्रम संख्या देखर उसे शुद्ध पदनेकी सूचना दी गई है। कबि परिचय प्रस्तुत ग्रन्थमें संग्रहीत तीनों रचनाओं के प्रणेता महाकवि रदधू है । वे अपश्र श-सा हित्यके जाज्वल्यमान नक्षत्र हँ । विपुल साहित्य-रननाभोकी दुष्टिसे उनकी तुलनामें ठहरने वाले अन्य प्रतिस्पर्धी कवि या साहित्यका रके अस्तित््वकी सम्भावना अपभ्रश-साहित्यमें नहीं की जा सकती । रसकी अमृत-स्रोतस्विनी प्रवाहित करनेके साथ-साथ श्रमण-संस्कृतमें चिरन्तन आदर्शों की प्रतिष्ठा करने वाला यह्‌ प्रथम सारस्वत है, जिसके व्यक्तित््वमें एक साथ प्रबन्धकार, दाशंनिक, आचार- शास्त्र प्रणेता एयं क्रान्ति-दृष्टाका समन्वय हुआ है। रइचघुके प्रबन्धात्मक आख्यानोंमें सोन्‍्दर्यंकी पवित्रता एवं मादकता, प्रेमकी निरछलत्ता एवं विवश्वता, प्रकतिजन्य सरलता एवं मुग्धता, श्रमण- संस्थाका कठोर आचरण एवं उसको दयालुता, माता-पिताका वात्सल्य, पाप एवं दुराचारोंका निमंम दण्ड, वासनाकों मांसलताका प्रक्षाऊन आत्माका सुशान्त निमंलछीकरण, रोमांसका आसव एवं संस्कृतके पीयुषका मंगलमय सम्मिखन, प्रेयस्‌ ओर श्रेयसका ग्रन्थिबन्ध और इन सबसे ऊपर त्याग एवं कषाय-निग्रहका निदशंन समाहित है । कवि-नाम इतने महान्‌ कविका प्रचलित “रइध्‌' यह नाम वास्तविक है अथवा उपनाम, इसकी जान- कारीके लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है | समग्र रइधू साहित्यमें कविनाम “रइध्‌' ही मिलता है । कही-कहीं रदधूउ^ रद्‌ जैसे अन्य नामान्तर भौ मिलते है, किन्तु ये समी नाम 'रइधृके ही है भौर छन्द-रचनाकौ दुष्टिसे हीनाधिक वणं या मात्राके साथ उन्हे प्रस्तुत किया गया है | श्रद्ध य नाथूरामजी प्रमी, मोहनलाल दलीचंद ইজাই, হৃন্দ০ डी° वेणकरं प्रभृति विद्वान्‌ रइधूका अपरनाम सिहसेन' मानते हैँ । उनकी इस मान्यताका क्या आधार था, इसका उल्टेख उन्होने नहीं किया । किन्तु उनको यह मान्यता परवर्ती विद्धानोमे बडी लोकप्रिय हो गई । इन पंकितियोके लेखकने स्वयं मौ कुच समय पूवं तक उस मान्यताका अनुकरण किया था किन्तु গিনি আপার হা | পা । न्य হত স্পা শত উপ চা উস ০ সপ শি পিতা রত | শক [1 17 क १. सम्मइ० १।१९।११ २, वही २।१६।१५, २।२३८।९७., १।२१।१५., ५।३८। १२, ६।१७।१३., ७।१४।१९ २. प्राकृतदसलक्षणजयमाला (बम्बई, १९२२) पु० १ ४. जैन साहित्यनो इतिहास (बम्बर, १९३२) पृ० सं० ५२० ५, जिनरत्नकोष (पूना, १९४४) प० २९ ६. दें० रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (वैशाली, १९१३ ) पृ० सं० ३५-३८




User Reviews

  • Ratna

    at 2020-01-14 07:16:48
    Rated : 10 out of 10 stars.
    "An exhaustive study, rich in information and methodical in presentation!!"
    Review from renowned Indologists: Dr. A. N. Upadhye (Univ of Mysore): Dr. Rajaram's "Critical Study of Raidhu's work" is an exhaustive study, rich in information and methodical in presentation. Literary material supplied by Raidhu will be of immense value for new Indo-Aryan studies.
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