सर्वदर्शन संग्रह | Sarva Darshan Sangrah

Sarva Darshan Sangrah by उदयनारायण सिंह - Udaynarayan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दु्नम भाषदीकासमेतः । ५ #-.___ ५ ५ #९५ ७ कर लि वद्धि #... 3 जृहरुपति कहताहि कि तीन वेद यज्ञोपवीत और भर्मछेपन ये सब वुद्धि और तरुपहीन च्यक्तियॉकी जैविकामात्र है ॥ १३ ॥ अत एवं कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरक॑ लोकसिद्धौ राजा पर- सेश्वरः देदोच्छेदो सोश्षः । देहात्सवादे च कृशो5हं कृष्णोह- सित्यादि सामानाधघिकरण्योपपत्तिः । मम शर्रिरिमिति व्यव- हारो राहोः शिर इत्यादिवदौपचारिकः ॥ १२ ॥। इससमय मकृतसिंद्धान्त यह है कि कण्टकादिके छिये दुःखही नरक है ठोकमसिद्ध राजाही परमेदवर और देहत्यागही मुक्ति है । देहहदी आत्मा है । इसमतको माननेसे में कु और से कृप्ण हूं इसमकारके वाक्यकी अर्योपपत्ति होसकतीहैं । देह और आत्मा विभिन्न हो- नेहे कुदाव्यक्ति में कूद एवं कृष्णवर्णपुरुष मे कृष्ण इसप्रकार नहीं कहसकते । यदि देहही आत्मा हुआ तो मेरा शिर इसमकारका व्यवहार किसमकार सम्भवित होसकता इसका उत्तर यहहै जो--निसमकार राहु शिरभिन्न कुछमी नहीं तथापि राहका शिर इसमक र का उपचार प्रसिद्ध है उस मकार देह और आत्मा अभिन्न होनेसे मेरा डिर इसपमकार उपचार होसकताहे ॥ १९ ॥ तदतत स्व समबाहि अत्र चत्वारि यूतानि भूसिकास्बनला- सलाः । चतुस्य खु भूतभ्यश्वतन्यसुपजायत ॥ १३ ॥। विषय सब संयहकर कहाहे कि इस जगतमें भूमि जछ वायु ओर अग्नि येही केदख चार भूत है इन्हीं चारमूतासे चेतन्य उत्पन्न होताहैं ॥ १३ ॥ किण्वादिम्यः समेतेभ्यों द्व्येस्यो सदशक्तिवत्‌ । अं स्थूलः शा5स्मात सामानाघकरण्यतः ॥ १४ ॥ देह स्थोल्यांदि गाझ्च स एवात्या न चापरः । सम देहो5्यपित्युक्ति सम्भवे- दोपचारिकी इति ॥ १५ ॥ ससमकार मदवीं कणा रुच मिंटकर ही मध्यम मादकता थाने मार भूत सद एव होनिपर उसमें चतन्य उत्पन्न होसकना है । दे श्ज डी के व अलग




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