श्री जिनागम | Shri Jinagam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) गुण स्थान तथा भक्तामर नाम कौ दोनो पुस्तके तीन-तीन हजार प्रकाशन करवाई आगरा मे धर्म प्रभा- बना हुई | श्री घलियागज जैन पत्रायत तथा श्री नमक मन्‍्डी जैन पचायत ने अभिनन्दन पत्र भी दिया । समाज के पास से स्पया ले मै खा जाता है । गास्तर दाम से बेचते है ऐसा ग्राक्षेप सम्पादक महा- शय ने ग्रखबार मे छापा तब उस श्राक्षेप से बचने के लिए हमने झ्ागरा मे, जहाँ मेरा चातुर मास था वहा तुरन्त कोर्ट में मैने अपना वसीयत नामा रजिस्टर करवाया झभोर उसकी नकल अनेक ग्रामो में भेज दी साथ ही साथ जैन मित्र, जैन गजट, जैन दर्शन तथा जैन सन्देश के सम्पादक महाशय को अपने पत्र मे प्रकट करने के लिए भेज दिया । जिसकी नकल निम्न प्रकार है। में कि ब्रह्मचारी मूलशकर पुत्र कालीदास हाल निवास स्थान आगरा का हूँ। मे श्रपने स्वस्थ चित्त ओर स्थिर बुद्धि तथा इन्द्रियों की अवस्था मे निम्नलिखित निष्ठा करता हूँ -- १--इस समय मेरे पास १००००) रु० की चल सम्पत्ति है जिसमे से ८०००) रु० मेरा निजी द्रव्य है और २०००) रु० ज्ञान विकास के लिये दान से प्राप्त हुआ । मैने ७०००) रु० की कीमत की दिगम्बर जैन धर्मं सम्बन्धी पुस्तकों की स्थापना की है व प्रकाशित की है, और ২০০০) रु० मेरे नाम से पोस्ट श्राफिस सेविंग बैडू जयपुर भ्रकाउयट न॒० ८६०५७ में जमा है श्लौर १०००) रु० मेरे पास खर्च के लिए मौजूद हैं । हित अपने जीवन काल मे कुछ दि० जैन धर्म सम्बन्धी पुस्तको की रचना की है और प्रकाशित की है, और भविष्य मे भी मेरा विचार इसी प्रकार को रचना करके प्रकाशित करने का है। मेरी श्राम्रु इस समय लगभग ४८ वे की है, न जाने किस समय देहवसान हो जाय श्रब दूरदशिता के विचार से मै उचित समभता हूँ कि मै एक निष्ठा पत्र लिखू' जिससे कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरे अध्यक्ध जिनको कि मैं अपने सक्त्प की पूर्ति का कार्य सौपता हैँ मेरी इच्छा के अनुसार कार्य करे जो कुछ इस समय मेरे पास सम्पत्ति है या भविष्य मे जो मुझे किसी रूय से मिले, उसे धार्मिक रूप में व्यय करने का मुझे पूर्ण अधिकार होगा । ३-मेने अपने जीवन काल मे ब्रह्मचारी होने के पश्चात्‌ जहाँ चतु'मास किया वहाँ की पचायत को आज्ञा लेकर हमने श्ञास्त्र स्टाक मे रखा हे । उस शास्त्र पर मेरी ही मालिकी रहेगी और ऐसे गास्त्र रखने के लिए अलमारी ग्रादि बनाई जावे उस पर मेरा ही अधिकार होगा । ४-मेरे दो पुत्र है जिनका नाम भानूलाल तथा प्रवीणचन्द्र है, जिनको कि उपरोक्त सम्पत्ति या और जो भविष्य मे मेरे पास आवेगी उससे उनका किसी प्रकार का सम्बन्ध व अधिकार नहीं होगा। मेरी मृत्यु के पश्चात्‌ वह अध्यक्ष जिनको मे नियत करता हूँ पुस्तक जो मेरी मृत्यु तक प्रकाशित हो उनको देश विदेश में बिना मूल्य लिए हुए, जिनको वह उचित समझे, प्रदान कर दे और जो रुपया शेप रहे उसे ज्ञान दान में लगा दे तथा जो फर्नीचर है वह भी घामिक सस्था मे प्रदान कर देवे । ५-मे निम्तलिखित महानुभावा को अपना अध्यक्प नियुक्त करता हूँ । (९) লী फतहलाल सघी, जयपुर (२) श्र माधोदास मुल्तानी, जयपुर (३) श्री लादूराम जैन, जयपुर (४) श्री हीरालाल जन, काला कुचामन सिटी (५) श्री गुलाबचन्द जी गगवाल, किशनगढ़ रेनवाल (६) श्नी रतनलाल जी जैन छावडा, सीकर (७) श्री धमंचन्दजी सेठी, गया (८) श्री नैमीचन्द जी वरबासिया आगरा । ६-यह कि मुभे उपयुक्त भ्रध्यकषो मे से किसी शअ्रध्यक्ष को प्पने [जीवन काल मे बदलने का प्रधिकार रहेगा ।




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