भारतीय प्राचीन लिपिमाला | The Palaeography Of India (1959) Ac 4604

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The Palaeography Of India (1959) Ac 4604 by गौरीशंकर हीराचंद ओझा - Gaurishankar Heerachand Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका. के प्रारंभ के लेखों को न समझ सकें, तो भी लिपिपत्रों की सहायता से थे प्राचीन लिपियों का पढ़ना सीस्व सकते हैं. दूसरा कारण यह है कि हिंदी साहित्य में अब तक प्राधीन शोधसंषंधी साहित्य का अभाव सा ही है. यदि हस पुसतक से उक्त अमाव के एक अशुमात्र अंश की भी पूर्ति हुईं तो मुझ जैसे हिंदी के तुच्छु सेषक के लिये विशेष आनंद की बात होगी. इस पुस्तक का क्रम ऐसा रक्‍्खा गया है कि ३. स. की चौथी शताब्दी के मध्य के आसपास तक की समरत मारतव्षे की लिषियों की संज्ञा ब्राह्मी रक्वी है. उसके बाद लेखनप्रवाह सर्प रूप से दो स्रोलों में विभक्त होता है, जिनके नाम “उत्तरी” और “दक्षिणी' रफ़्खे हैं, उत्तरी शैली में गुप्त, छुटिल, नागरी, शारदा और बंगला लिपियों का समावेश होता है और दक्तिणी में पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग और तामित्ठ लिपियां हैं. इन्दं सुख्य लिपियों से भारतबषे की समस्त অললাল (তু के अतिरिक्त ) लिपियां निकली हैं. भंत में खरोष्ठी लिपि दी गई है. १ से ७० तक के लिपिपन्नों के बनाने में क्रम ऐस्ला रक्खा गया है कि प्रथम स्वर, फिर रुपंजन, उसके पीछे क्रम से हलंत व्यंजन, स्वरामिलित व्यंजन, संयुक्त येजन, जिहवामलीय और उपध्मानीय के चिड्ों सहित व्यंजन और तमे योः का सांकेतिक चिकह्र ( यदि हो तो ) दिया गया है. १ से ५६ लक और ६५ से ७० तक के लिपिपपों में से प्रत्येक के अत में अभ्यास के लिये कुछ पंक्ियां सूल लेखादि से उद्धृत की गई हैं. उनमें शब्द समासों के अनुसार अलग अलग इस विचार से रकक्‍्खे गये हैं कि विद्यार्थियों को उनके पढ़न में सुभीता हो. उक्त पंक्षियों का नागरी अक्षरांतर भी पंकि কাল से प्रत्येक लिपिपन्न के वन के अंत में दे दिया है जिससे पढ़नेवालों को उन पंक्तियों के पढ़ने में कहीं संदेह रह जाय तो उसका निराकरण हो सकेगा. उन पंक्षियों में जहां कोह अंदर अस्पष्ट है अथवा छूट गया है भक्तरातर सें उसको [ 1] चिक के भीतर, और जहां कोई अशुद्धि है उसका शुद्ध रू (_ ) बिक के भीतर लिखा है. जहां मूल का कोई अश जाता रहा है वहां......ऐसी बिंदियां बनादी हैं. जहां कहीं 'ड्श' और 'डहुह ' संयुक्त व्यंजन मूल में संयुक्त लिखे हुए हैं वहां उनके संयुक्त टाइप न होने से प्रथम अक्षर को हलंत रखना पड़ा है परंतु उनके नीचे आाड़ी लकीर बहुधा रख दी गई है जिससे पाठकों को मालूम हो सकेगा कि सूल में ये अच्षर एक दूसरे से मिला कर लिखे गये हैं. मुझे पूरा विश्वास है कि उक्त लिपिपग्नों के अंत में दी हुई मूल पंक्तियों को पढ़ लेनेबाले को कोई भी अन्य लेख पढ़ लेने में कठिनता न होगी. लिपिपश्न ६० से ६४ में मूल पंक्तियां नहीं दी गई जिसका कारण यह है कि उनमें तामित्ठ तथा वहेदयुत्तु लिपियां दी गहं है. वर्णौ की कमीके कारण डन लिपियो में संस्कृत 'माषा लिखी नहीं जा सकती, वे केवल तामिव् ही में काम दे सकती हें और खनको तामिच्ट माषा जाननेवाले ही समक सकते हें, तो भी यहुधा प्रत्येक शतावदी के लेखादि से उनकी चिरतृत बणेमालारएं बना दी हैं, जिनसे तामिव्ठ जाननेधालों की उन लिपियों के लेखादि के पढने में सहायता मिल सकगी. लिपिपश्नों में दिये हुए अक्षरों तथा अंकों का समय निर्णय करने में जिन लेखादि में निश्चित আল্‌ मिले उनके तो ये ही संवत्‌ दिये गये हैं, परंतु जिनमें कोई निश्चित संबत्‌ नहीं है उनका समय यहुचा लिपियों के आधार पर ही या अन्य साधनों से लिखा गया है जिससे उसमें अतर होना संभव है; क्योंकि किसी लेख या दानपत्र में निश्चित संवत्‌ न होने की दशा में केवल उसकी लिपि के आधार पर ही उसका समय स्थिर करने का सागे निष्कटक नहीं है. उसमें पश्चीस पथाम डी नहीं किंतु कमी कभी तो सौ दो सो था उससे भी अधिक ययों की चूक हो जामा संभव हैं ऐसा में अपने अनुभव से कह सकता हूं. পে




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