तुलसी रत्नावली | Tulsi Ratnawali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवितावली चालकांड दुर्मिल सवेया अवधेस के द्वारे सफारे गई, सुत गोद के भूपति ले निकसे | अवलोकि हों सोच-विमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे घिक से ॥ तुलसी” मनरंजन रंजित-अंजन नेन सु-खंजन-जातक से। सजनी ससि में समसील उसे नवनील ससेरुद से विकसे ॥ ॥ पग नूपुर ओ' पहुँची करकंजनि, मंजु वनी मनिमाल हिये। नवनील कलेवर पीत भोगा मले, पुलक नृप गोद लिये ॥ अरविंद सो 'आनन, रुप-मरंद अनंदित लोचन-भूग पिये। मन मो न वस्यो परस वालक जौ 'तुलसी' जग मे फल कोन जिये ॥२॥ फबहूँ ससि मॉगत आरि करें, कवहेँ प्रतिविवर निद्दारि ढरे। फवहूँ करताल बजाइ के नाचत, मातु सबे मन मोद भरें ॥ फवहूँ रिसिआइ कहे हठि के, पुनि लेत सोई जेहि लागि अरें। अवधेस के बालक चारि सदा, 'तुलसी'-मन-संदिर में विहरे ॥१॥ पद-फंजनि मसंजु बनी पनहीं, धनुद्दी-सर पंकन्न-पानि लिये। लरिका-सैंग सेलत डोलत हैं, सरजू-तट, चोहट, हाट, ভি ॥ तुलसी, शरस वालक सो नदि नेद्‌ कहा जप जोग समाधि किये । नर ते खर सुकर स्वान समान, कौ जग मे एल कौन জি |




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