अध्यात्मसूत्र - प्रवचन उत्तरपूर्व | Adhyatmasutra - Pravachan Uttar Purv

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Adhyatmasutra - Pravachan Uttar Purv by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्रध्यात्मसूत्र प्रवचन उत्तरपुर्वभाग पंचम भ्रष्याय. {` ११ निजस्वभावके प्रवलस्वनमे सघर होता है शुद्धस्वरूप चैतन्यभाव जो निरन्तर प्रवृत्त हो रहा है उसके भ्रवलम्बनसे सवर होता है। भगवान प्रश्चु हममे मौजूद है जिमके सहारे कल्याण होगा । वह हममे हैं परन्तु मोही उसे देखता नही । 'लोकमे विशेषका महत्व है, भादर है, परन्तु 'कल्पाणके लिए सामान्यक्रा महत्व है । सामान्यदृष्टि होनेपर श्रात्माकी निर्मल परिणति होने लगती है । सामान्यकी टृष्टिरूप श्रवस्थामे विकल्प हटेगे । विज्लेषकी उन्मुखतामे विकल्प बढेंगे, अनु भव्र॒ करलो | भ्रभो देहो--इतने सब मनुष्य बैठे हैं, इनमे विशेषका भ्राश्रयलो, इस विविधतासे देखो कि ये त्यागी है, ये पडित है, घनी है, ये श्मुक हँ भ्रादि भ्रादि तो नाना विकल्प उटेगे । यदि सबको एक सामान्य मनुष्यकी इष्टिसे देखा जाय तो इस भ्रविधेष इष्टिसे देखने मे उन विकल्पोका श्रवकाक्ञ रहेगा क्या ? नही । भ्रात्माको सच्चिदानन्द चाहिये यही कामना रहे | मजहव, कुल, जातिका रिस्ता अपने साथ न लगाये । इस भराश्रारसे श्रये डे कि লালা विकल्पो ने सताया । अरपनेमे दिखावा बतानेकी जरूरत नही, भ्रात्मे कल्याणक लिये हमारा सम्बध इतना ই कि वतमान परिणमत्को भीं देखो ये जाने चाला है, जाने वालेमे कया राग करना, यह 'रहता नहीं, हमारा नही । इससे भिन्न स्वरूप त्रिन्मात्र श्रात्मस्वभावमे “यह मैं हूँ, ऐसी प्रतीत्ति कर विश्ञाम लेना । आत्माका धर्म आंत्मामे मिलेगा इसके लिये विज्ञानका श्रवलम्बन करे, ज्ञ!नके बढानेके लिये दूसरेके सहारेको न खोजो। ज्ञानके द्वारा .अ्रपने पथका स्वय निणेय करो । म श्रात्मा हू, मुके तो भ्रपना श्रनन्त श्रानन्द चाहिये, ऐसा सकलप कर जुट जावो शानके सदुपयोगमे । पदार्थ अपते झआापमे जिसको- धारण करता है बह धर्म है। जो पदार्थ साथ अनादिसे भ्रनन्‍्तकाल तक रहे व एक रूप रहे वह धर्म भ्र्थात्‌ स्वभाव है! क्रोयादि किसी निभित्तको पाकर होते है ये हमारे फटकर ज्ञान मतिज्ञान भ्रादि भी निमित्त पाकर उत्पन्न होते रै, किन्तु मौलिक ज्ञान किसीको निमित्त पाकर नही होता, वहु सहन ज्ञान हमारा स्वभाव है। निविकल्पता समताभावस्ते बनती है। चैतन्य श्रात्माका




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