समाधितन्त्र - प्रवचन | Samadhi Tantra - Pravachan

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Samadhi Tantra - Pravachan by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥) <> वाँ -इलोक [ ११ झतएव ग्रे #त श्राव्कि व्यवहारकी दृत्ति याँ सहज-हं ती. हैं, किस्तु आज्ञाती तो-उन রিলুঃ मन, वंचनकी प्रद्धत्तिबोकों निभाकर यह ,सतोष करता है कि हमने नि ब्रत पाल लिंया प्ंथवा अपना धर्म पूरा निभालिया ऐसा सतोष करता है,सो यह व्यवहारमे ज़गा हुआ कहलाता है और आत्माके विषयमे' सोया हुआ ৮ कई केस नं पे निश्चय व व्यवहारमे मुख्यता व गौणता - जैसे एक भोजनका ही प्रकरण ले लो । ग्राहारयच्द्ध वनानिमे दो ३द्धि चलती है-- एक तो भोजनकी ' हद्धि-भो जन বাঁ जीववाधारदहित ` मर्यादित हना चाहिए-यह्‌ त्तो है भोजनकी युद्धि और, दूसरी शुद्धि है चौका, कपडे, बनाने वाला, ये सव वहत दढ ह ने. चादिये । परके लेप रहित कोई छू न सके इस तरह हे न चाहिये । ठीक है फिर भी एत्येक पुख्पके ইল दोभे किसी एकपर प्रधान दृष्ठि होती है और एकपर गौण दृश्ठि होती-है। जैसे इनमे श्रन्तर है, वैसे ही भ्ज्ञानीके निश्चय और व्यव्हारमे अन्तर है । जिसकी प्रधान हृषप्ठि गुर हृष्ठिकी हैं,श्रात्मविकाशकी है,क्ात्मोन्मुखताकी है-वह व्यवहारमे सोग्रा हुआ है । भले ही सर्व प्रदत्तिताँ आगमानुकुल , हो रही हैं, पर सहज हो जाती है अर्थात्‌ उनमे ऐसी योग्यता पडी *हैं कि श्रयोग्य प्रद्कत्तियाँ नही होती है । .ज्ञानटष्टिवाला पुरुष क्रया, विपय कपायोमे फसने वाली प्रद्धत्तियाँ 'क़रेगा ? नही कर सकता है, ती सीधे सहज ही उसके आगमानुकूल इत्तियाँ चलेंगी, भौर जो द्यवहारमे, ही जगा हुआ है, जो कुछ ग्रासो दीखता है यह सच है, यह श्राचक- है हम,- साधु है, हमको,इस तरहसे चलना, चाहिये तव-तो हम साधु है, इन श्रावक़ोसे-हमाराःविशिष्ठ पद है, हम प्रतिमावोसे भी झौर ऊपरका-माचरण“>रखने वाले है,-हमारी त्रियावोंमे कोई कभी नही रहना चाहिये नही तो इन श्रावकोम फिर. धर्म की-अप्रभावना हो जायगी । कैसी धमं वी धन है, मगर ये सवं धून वाहरी धुन है । इनमे - आत्तरिक मर्म का स्पर्श नही है। ऐसी-ही- बात सहज रूपसे क्ञानी सावुवोकीःमी हो जाती दहै, पर सारा ५कं दुस्यताका ग्रौर गौणका है । , आररायभेदकं श्रन्तर-- जैसे कोई पुस्प जीनेके लिण्खाया क्रते है श्रौर कोई पुस्प खानेके लिए ही जिया करते हे । एकका ध्यान है “कि जीना जरूरी है वयोकि श्रात्महितका काम वहुत पडा है इसलिए खाना-ही चाहिए।,एक खाकर भी उद्देध्य धर्मके बनाये है व्रतप्उसके धुण्यवध हैं। एक पुरुष सोचता है'कि खूब खावो पियो मौज उडावो इसीलिए तो मनुप्य हैं। कीऊे मकोडे पशु पक्षी इनको कहाँ ; नसीव है,'अगर हुए है मनुप्य और मिले हैं अन्छे हाथ पर, अ्रच्छे साधन मिले ;है. अब भी न खाये न प्वटिया साधन वनाये तो मूर्खता है कु एेसा भी सोचने वाले है इन दोनो ने खाया तो सही, अद्वत्ति तो.समान है, यह भी खा रहा है, वह भी खा रहा है, पर आशयके'उनके भेदसे अन्तरमें वडा अन्तर हो गया है । ५ परस्पर विरुद्ध भावोका एकत्र श्रभाव- जैसे एक म्यानमें दो तलवार नही समा सकती है अथवा एक सूरई क्पडेको दोनो तरफ नही सी सक्ती है श्रयवा एक साथ दो दिशावोमे नही चला जा सकता है। कानपुर भी जाना हैऔर जसवतनगर-भी -




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