अध्यात्मसहस्त्री प्रवचन भाग - 8, 9 | Adhyatmasahastry Pravachan Bhag - 8, 9

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Adhyatmasahastry Pravachan Bhag - 8, 9 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रध्यात्मसहस्री प्रवचन अष्टम भाग है अर्थ समभिय । इस दर्शनका यह श्राशय है कि सारा विश्व जो कुछ भी दिख रहा है--चर प्रचर, चेतन श्रचेतन, जितना जो कुछ भी सत्‌ है वह सब एक ब्रह्म है भ्रौर वह है सर्व- व्यापी तथा एक ही है । इस सिद्धान्तमे यह्‌ प्रश्न किया जानेपर कि फिर आखिर ये सुख दुख भिन्‍्त-भिन्‍त जीव जो कुछ यहाँ नजर झा रहा है यह तो एक नही मालुम होता, ये तो अनेक प्रतीत सेते है । तो उसका समाधान यो किया गया कि ये सब उसके आराम है, पर्याय है, बगीचा है, उसको कोई नही देखता । श्रोर कोई देखता है तो वह भ्रज्ञ प्राणी है, मायाग्रस्त है। इस सिद्धान्तके लिए पूछा जा रहा है कि यह सिद्धान्त किस नयपर आधा- रित हुआ है ? तो सुनो--यह सिद्धान्त सामान्य हृष्टिका परिणाम है। सामान्यका अर्थ क्था है ? समाने भव सामान्य अर्थात्‌ जो समानमे होनेवाला भाव है उसको सामान्य कहते है ग्रौर उस सामान्यकी हष्टि रखना श्रौर उसका ्राग्रह रखना कि यही मात्र है ग्रसलमे, बस इस हृष्टिका परिणाम है জী यह्‌ अभिप्राय वन्य कि सव्यापी एक ब्रह्म ही है, श्रौर कुछ भी नहीं । ये नाना कुछ नही है, वही एक मात्र है । यह बात कैसे सामान्य दृष्टिसे निरखी ? सो सुनो--तो कहीसे भी शुरू कीजिए--जीवको शुरू कीजिए जीव है यद्यपि श्रनन्त, मगर जीवक्रे तथ्यभूत स्वरूपपर ष्टि जव करने लगते है तो वहाँ व्यत्तियाँ नातापन कुछ अनुभव सेन श्रायगा ] जरा जीवके उस श्रसली स्वरूपको 1रखिये जो जीजमे शाश्वत है, जीवका प्राणभूत है, जो स्वभाव है उसपर दृष्टि तौ दीजिए--जव कभी किसी जीवको श्राश्रयभूत करक वरहा उसके स्वरूपको निरखने चलेगे तो वर स्वरूप ही रहं जायगा उपयोगमे, वह॒ जीव न रहेगा, और ऐसा जब उपयोग हो और वहाँ उस सामान्य स्वभावका परिचय हो तो उसके बाद विकल्प अवस्थामे भी आये कोई, वहा भी यह आश्ह करके रहे कि बस सत्‌ तो वही मात्र है, और कुछ सत्‌ है ही नही । लो अब इस हष्टिमे यहं बात श्रायी कि वह सत्‌ है, ब्रह्म है और एक है। उसे कितना बडा बताया जाय ? छोटा तो वह था नही, केन्द्रमे तो वह श्राया नही और आया अपने उपयोगमे तो उपयोगमे आये और कुछ बाहर ध्यानमे न आये तो वह असीम कहा जायगा, सर्वव्यापी, उस ब्रह्मकी कोई सीमा नहीं है । तो यह बात मिलती है सामान्यहृष्टिके श्राधारपर, इस दृष्टिमे श्रावान्तर सत्ता नही रही, याने पृथक्‌ प्रथक्‌ सत्त्वकी ओर अभिप्राय नहीं जाता । ब्रह्यकी सर्बव्यापिता माननेका मौका दिलानेवाला विचार--श्रव जरा सर्वव्यापित्व का विश्लेषण करके देख तो इस तरह देख सव ते है कि देखो लोकमे मनन्त जीव है, हां अभी तो स्वभाव ष्टिसे एक बताया था कि हा एक है, और सर्वव्यापी किस तरह है ? त्रैकि अपने उपयोगमे आया वह्‌, तो उपयोगमे श्राया हुआ असीम ही रहता है, यो सर्वव्यापी है है ती | श्रौर बाह्य क्षेत्रकी ृष्टिसे देखो तो इस लोकमे ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा जहाँ जीव न नी




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