समन्वय | Samanya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे जैसे पूजक वैसे पूज्य सम० इस परिवर्तन से क्या श्रथ निकालना चाहिये ? बात यह है कि सभी संसार परिवर्चनशील है । सभ्यता-शालीनता इष्ट-पूज्य पूजा-त्रर्चा विश्वास-आचार रहैन-सहन सभी के रूप बदलते रहते हैं । मूलतन्व जिन का प्रतिपादन दर्शनों में किया है नहीं बदलते । मनुष्य की प्रकृति के बहुविध अ्रंशों अबयवों अ्रस्ों पहलुओं गुणों के परिवर्चमान श्रमिव्यंजनों ग्रस्वापो झ्राविर्भावों-तिरोभावों के श्रनुसार उस की सभी सामग्री बदलती रहती है । श्रद्ामयोध्यं पुरुषः यो यच्छूद्धः स एव सः यजंते सार्विका देवान्‌ यक्षरक्षांसि राजसा प्रेतान्‌ भरूतग्णाइचान्ये यजंते तामसा जनाः देवान देवयजो यांति मदूभक्ता यांति सामपि । गीता यद्न्न पुरुषों भवति तदुज्ारतम्य देवता४ । रामायण प्रद्धा ही पुरुष का स्व-भाव है तास्विक स्व-रूप है जिस की जो श्रद्ध है हृदय की इच्छा है वही वह है सात्विक जीव देवों को पूजते हैं राजस यक्ष-राच्ुसों को तामस भूत-प्रेतों को । देवताओं के पूजने वाले देवताश्रो के पास जाते हैं मेरा भक्त मेरे पास श्राता है । जो अन्न मनुष्य खाता है वहीं उस के देवता खाते हैं । अर्थात्‌ तामस प्रझुति के मनुष्यों के देवता भी तामर राजसो के राजस सात्विकों के सात्विक । गुणों से परे गुणों के मालिक को स्वामी को शरात्मा को पहिचानने वाले श्रात्मवानो के लिए एक श्रात्मा सबंव्यापी सबंदेवमय दी देवता है | ज्यो ज्यों मनुष्यों की प्रकृति में श्रर्थात्‌ प्राकृतिक गुणों के श्राविष्कार मे उत्क्ष होता है तमसू कम श्रौर रजसू अधिक फिर रजस कम श्र सत्व श्रधिक त्यो त्यों उनके देवताश्रों मे भी उत्कर्प होता है | इस से यह नहीं समभना चाहिये कि राजस तामस उपदेवता कहिये शक्तियाँ कहिये भूत य्रेत-पिशरचादि कहिये सर्वथा मिथ्या हैं केवल कल्पना हैं ्रत्यंता- सत्‌ हैं । ऐसा नहीं । उन मे भी वैसी व्यावददारिक सत्ता है जैसी सात्विकों में | किंतु पूजकों भावकों की भावना कल्पना वासना के झ्नुसार भावित इष्ट का




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