गहरी पर्त के हस्ताक्षर | Gahari Part Ke Hastakshar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्रन्थकारों ने सत्य एवं तथ्य को छिपाने का प्रयास नहीं किया है ।
होने सत्य को अचूक अभिव्यक्ति दी है। उनकी पक्षपातरहित उक्तियां:...
उनकी महिमा का परिचय दे रही हैं | वे स्वयं सन्देश देते रै किन वेदाः. ~.
ध्ययनाम्मक्तिनं शास्वपठनादपि मुक्ति की अ्रवाप्तिन वेदो के ब्रध्ययन से
सम्भव है और न शास्त्रों के पठन-पाठन से । इसी इष्टिकोश को समक्ष
रखते इए शस्त्रकारो ने संकेत किया है कि शास्त्र की सीमा-मुक्ति-बीध-
अ्नुभूतिबोध या आत्मज्ञान के पूव तक है । आत्मज्ञान की उपलब्धि अ्रथवा'
ग्रात्मज्षता के पश्चात शास्त्र उसी प्रकार निरुपयोगी हो जाते हैं, অন্ত
धान्यार्थी के लिये पुश्राल । |
''पलालपिव धान्यार्थी सवं -शास्तराि संत्यजेत्
ग्रभीष्ट धान्य है, पृश्राल नहीं, पुत्रा सामास्य व्यवसाय कौ वस्तुहै।
वह् दृष्ट नहीं है । সামনা व्यवसाय नहीं है । वह साधक के लिए परम
হত ।
इतना होने पर भी आत्मज्ञता की दिशा में प्रारम्भिक पद चरण हेतु
शास्त्रों की उपयोगिता निविवाद है | यह सत्य है कि उन्हें एक सीमा पर
पर्चकर छोड देना होता है, उनकी पकड़-जकड को ढीला कर देना होता
है । किन्तु उन्हे किसी भूमिका तक सर्वथा उपादेय स्वीकार क्या गया है ।
यही नहीं शास्त्रों के एक वाक्य को ही आत्मन् की दिशा में अनुभूति के
जागरण में माध्यम माना गया है। हाँ, यह वाक्य होगा अनुभूतिबोध से
पचाया हुआ । कहा है---
“मुक्तिदा गुरुवागेका, विद्या: सर्वाविडम्बिका”! |
मुक्तिप्रद तो केवल गुरुकी वाणीहै। भ्रात्मन्वेपी के लिए गुरु की
वाणो ही एकान्त सम्बल है । आत्मान्वेषी को आत्मज्ञानी गुरु ही प्रकाश दे
सकता है | गुरुकी महत्ता इसीलिए स्वीकृत हुई है कि उसके पास अनुभूति
को प्रख है--घ्रनुभूतिमूलक प्रज्ञाहै।
इसीलिए गुरु-शिष्य-परम्परा की महिमा के स्वर मुखरित हुए हैं ।
इसीलिए श्रेष्ठ गुद और सुयोग्य शिष्य के संयोग को सौभाग्य माना गया है ।
गुह दीपशिखा के तुल्प होता है, जो दीप से दीप को प्रज्वलित करते हुए
भान की धारा को कालप्रवाह के समानान््तर ले चलने का ऊर्जस्विल মাম
पस्तुत करता हे । ब्राचायं भद्रबाहु ने कटा है-
जह् दीवा दीव सयं परईप्पएं कोय दीप्पए दीवो।
दीवस्मा प्रिया, ज्रप्पं च प्रं च दीवंति
( ख)
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