मरणकण्डिका | Maranakandika

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Maranakandika by विशुद्धमती माताजी - Vishuddhamati Mataji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# १ + नाना प्रकार की विषत्तियों को वे हँसते-हँसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोगशोकादि से वे विचलित नहीं होतीं परन्तु पतिवियोगसदृश दारुण दु.ख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं। यह दु ख उन्हे असह्न हो जाता है। ऐसी दु-खपूर्ण स्थिति के कारण उन्हें अबला' भी पुकारा जाता है। परन्तु सुमित्राजी में आत्मबल प्रगट हुआ, उनके अन्तरग में स्फुरणा हुई कि इस जीव का एक मात्र सहायक या अवलम्बन धर्म ही है। धर्मो रक्षति रक्षित,' । अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और शिक्षार्जन' कर स्वावलम्बी (अपने पाँवों पर खड़े) होने का सकल्प लिया। भाइयो श्री नीरजजी और श्री निर्मलजी, सतना के सहयोग से केवल दो माह पढ कर प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्णं की । मिडिल का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम दो वर्ष मे पूरा किया ओर शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्न कर अध्यापन की अर्हता अर्जित की ओौर अनन्तर सागर के उसी महिलाश्रम म -जिसमे उनकी शिक्षा का श्रीमणेश हुआ था- अध्यापिका बनकर सुमित्राजी ने स्व+अवलम्बन के अपने सकल्प का एक चरण पूर्ण किया। सुमित्राजी ने महिलाश्रम (विधवाश्रम) का सुचारु रीत्या सचालन करते हुए करीब बारह वर्ष पर्यन्त प्रधानाध्यापिका का गुरुतर उत्तरदायित्व भी संभाला । आपके सद्प्रयत्नो से आश्रम मे श्री पाश्वनाथ चैत्यालय की स्थापना हुई । भाषा ओर व्याकरण का विशेष अध्ययन कर आपने भी 'साहित्यरत्न' ओर 'विद्यालकार' की उपाधियाँ अर्जित की । विद्वदूशियोपणि डँ पतन्नालालजी साहित्याचार्य का विनीत शिष्यत्व स्वीकार कर आपने जैन सिद्धान्त' में प्रवेश किया और धर्मविषय मे शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्णं की । अध्यापन ओौर शिक्षार्जन की इस सलग्रता ने सुमित्राजी के जीवनविकास के नये क्षितिजो का उद्घाटन किया। शनै शै उनमे ज्ञान का फल' अकुरित होने लगा। एक सुखद सयोग ही समञ्िये कि सन्‌ १९६२ मँ परमपूज्य परमश्रद्धेय (स्व ) आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज का वर्षायोग सागर घ्रे स्थापितं हुआ । आपकी परम निपपेक्षवृत्ति ओर शान्त सौम्य स्वभाव से सुमित्राजी अभिभूत हुई । सधस्थ प्रवर वक्ता पूज्य १०८ (स्व ) श्री सन्मतिसागरजी महाराज के मार्मिक उद्बोधनो से आपको असीम बल मिला ओर आपने स्व+ अवलम्बन के अपने सकल्प के अगले चरण की पूर्ति के रूपमे चाणित्र का मार्ग अगीकार कर सप्तम प्रतिमा के त्रत ग्रहण किये। চর विक्रम सवत्‌ २०२१, श्रावण शुक्ला सप्तमी, दि १४ अगस्त, १९६४ के दिन परम पूज्य तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्रशिरोमणि, दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के पुनीत कर-कमलो से ब्रह्मचारिणी सुमित्राजी की आर्यिका दीक्षा अतिशय क्षेत्र पपौराजी (म प्र ) में सम्पन्न हुई। अब से सुमित्राजी 'विशुद्धमती' बनीं। बुन्देलखण्ड में यह दीक्षा काफी वर्षों के अन्तराल से हुई थी अत. महती धर्मप्रभावना का कारण बनी। आचार्यश्री के सघ मे ध्यान और अध्ययन की विशिष्ट परम्पराओ के अनुरूप नवदीक्षित आर्यिकाश्री के नियमित शाख्राध्ययन का श्रीगणेश हुआ। सघस्थ परम पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज ने द्रव्यानुयोग और करणानुयोग के ग्रथों मे आर्थिकाश्री का प्रवेश कराया। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी पूज्य अजितसागरजी महाराज (बाद में पट्टाधीश आचार्य) ने न्याय, साहित्य, धर्म और व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया। जैन गणित के अभ्यास में और षट्खण्डागम सिद्धान्त के स्वाध्याय में (स्व ) ब्र प रतनचन्द्रजी मुख्तार आपके सहायक




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