संताल - संस्कार की रूपरेखा | Santal - Sanskar Ki Ruparekha

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Santal - Sanskar Ki Ruparekha by उमाशंकर - Umashankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ भारतीय संस्कृति भ्रपनी चिरन्तन सुन्दरता एवं विक्ष्वजनीनं मङ्गलं कामना के लिए प्रसिद्ध है। इसकी विविधता एवं प्रखर्डता-- भनेकता में एकता , ' विनवात्सु प्रविनश्यंतं, ˆ समं सर्वेषु भूतेषु, ' स्वमूतहितेरताः,' * सुहृदं प्रवंभूतानां ” आदि विशेषण श्रपने श्राप में इसकी महत्ता को सिद्ध करते हैं। मानवीय जीवन एवं प्राकृतिक सौंदर्य का ऐसा व्यापक समन्वय न्यत्र कहाँ मिलता है? गांगा यमुना को तरह , सूर्य चन्द्र की तरह भारतीय संस्कृति चिर पुरातन, बिर नवोन है। हमारे हस परम पावन देश में जितने प्रान्त है उनकी श्रपनी प्रपनी निजी विशेषताएँ हैं--- खान-पान में , वेश-मूषा में , रहन-सहन में, प्राचार-विचार में , कन्याकुमारी से लेकर काइमीर तक श्रौर द्वारका से लेकर कामछप तक संस्कृतियों की जो मनोहारिशी छुटा है उसे देखकर फौन सहृदय व्यक्ति विस्मय विमुग्ध एवं प्रानन्द परिप्लुत हुए बिना नही रहेगा । इतनी विवि- धता परन्तु साथ ही प्रखरड एकता-- कंसा मङ्गलमय विघान है ? परन्तु दुःख के साथ यह स्वीकार करना पडता है कि हम अपनी संस्कृति ; के पावन एवं मद्भुलमय प्रभाव से हटकर पाह्वात्य संस्कृति को चकाचौंध में जैसे जैसे भाते गये हम क्रमश: प्रभाग्य के शिकार होते गये झौर हमारी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना जडिमा शौर भ्रनास्था के निविड़ अंधकार में लुप्त-सी होती गथी भ्रौर फलत: हम उभय अ्रष्ट हो गये । सचमुच हो किसी भी राष्ट्र के लिए इससे बढकर अमज़ूल का कोई कारण हो नही सकता कि बह प्रपनी निजी सत्ता की मूलगत सस्कृति से विच्छिन्त होकर परावलम्बन पर जीने की लालसा करे । भारतीय संस्कृति ने बाहर से बहुत घक्क खाये है उससे वह बलवतो ही हई परन्तु श्रपने ही ब्रन्दर भ्रपने प्रति जब प्रता- हथा के कीटाशु घुस जायें तो निस्तार का क्या उपाय है ? विदेशी शासन




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