आचार्य चरितावली भाग 2 | Acharya Charitavali Part-ii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ट ) पीहर रहती है। बाकी ७ वर्ष रहे। तुके दिन के त्याग हैं अतः साढ़े तीन वर्ष रहे। तमे पाँच तिथियों के त्याग हैं। शेष दो वर्ष चार महीने रहे।” इस तरह हिसाब सममाते- समते स्वामीजी ते € वषे की अवधि को ६ मास के बरावर सिद्धं कर दिया । इसके वाद स्वामीजी बोले : “विवाह के बाद यदि पुत्र-पुत्री होकर सी का देहान्त हो जाय तो मन की मन में ही रह जाय । फिर मुनित्व ग्रहण करना कठिन हो जाता ই। आगार क्यों रखा है ? यावन्नीवन के लिए शीलन्रत ग्रहण कर लो 1 हेमराजजी ने हाथ जोड़ लिए। स्वामीजी अब गंभीर हो गये। बोले--“बड़ा कठित काम है। क्या शील अज्भीकार करवा हूँ ?” इस तरह बार-बार पूछकर हेमराजजी के कहने पर पाँच पदों की साक्षी से यावज्जीवन के लिए शीलब्नत ग्रहण करा दिया । अब हेमराजजी बोले £ “अब आप शिरियारी शीघ्र पधारें।” स्वामीजी बोले ; “अभी तो हीरांजी को भेजते हैं। साधु का प्रतिक्ररमण सीखना ।” इसके बाद नींबली पघधारे। नींबली में पहुँचने के बाद हेमराजजी के पास मिठाई थी उससे उनके बारहवाँ व्रत निपजाया । हेमराजजी ने गृहस्थावस्था में ही माघ सुदी १५ सं० १८५३ के बाद छः काय जीवों की हिंसा का त्याग कर दिया था। दीक्षा के लिए माघ सुदी १३ का दिन नियत हुआ। उनके बड़े बाप के बेटे ने रावले में शिकायत की--“भीखणजी हेमराज को जबदंस्ती दीक्षा देना चाहते हैं।” स्वामीजी को गाँव में न रहने की आज्ञा दी गई । गाँव के पंच हेमराजजी को साथ ले ठुकराणी के यहाँ पहुँचे। हेमराजजी का रूप-रंग बड़ा आकर्षक था। ठुकराणीजी ने कहा : “में अभी तुम्हारा विवाह कराए देती हूँ ।” हेमराजजी बोले £ “विवाह कराने का इतना शौक है तो गाँव में कुँवारे तो और भी बहुत हैं। में विवाह न करने का व्रत ले चुका हूँ ।” इतना कह वहाँ से उठ चले आए। हेमराजजी की आतन्तरिक वेराग्य-भावना को देख ठुकराणीजी ने स्वामीजी पर लगाये गये हुक्म को हटा लिया । दीक्षा के समय हेमराजजी की अवस्था २४ वर्ष की थी। आपकी दीक्षा विशाल बट वृक्ष के तले हुईं। यह घटना १८५३ के माघ शुक्ता १३ बृहस्पतिवार के दिन की है। उस समय पुष्य नक्षत्र और आयुष्मान योग था। हेमराजजी स्वामी की दीक्षा हुई तव संघ में १२ साधु थे। आप तेरहवें साधु हुए। उसके वाद संख्या बढ़ती ही गई | स्वामीजी जब १८६० में देवलोक हुए तव २१ साधु और २८ साध्वियाँ गण में थे। | हेमराजजी स्वामी बड़े आतापी पुरुष थे! वे एक महात्‌ तपस्वी ओर स्थिर परिणामी योगी ये। वे वड़े वहुभ्रुती थे। उनके चरणों मेँ रहकर अनेक संतो ने गहरा शास्र-ज्ञान पाया । अनेक साधुओं ने उनके साथ रह दीघ॑ रोमाश्जकारी तपस्याएँ कीं । उन्होंने तेरापंथ के इतिहास में अनेक स्वर्ण पृष्ठ जोड़े। चतुर्थ आचाये जीतमलजी स्वामी के वे विद्यागुरु थे। उनके निर्माण का सारा श्रेय इसी तपस्वी संत को है। हेमराजजी स्वामी शासन के स्तम्भ माने गये हैं। आपका स्वर्गवास स॑ १६०४ के वर्ष जेठ सुदी २ के दिन सिरीयारी में हुआ। आपके स्वर्गवास के बाद आचार्य




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