प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद | Prachin Bharat ke Kalatamak Vinod

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Prachin Bharat ke Kalatamak Vinod  by हजारी प्रसाद द्विवेदी - Hazari Prasad Dwivedi

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ५ हुई केंचुली ही उत्तरीयका कार्य कर रही थी । हम्योंमेंके श्रमल-धवल' प्राचीर काले पड़ गए थे, दीवारोके फौकमेसे वृणवलि्योँ निकल पड़ी थीं, चन्द्रकिरणे भी उन्हें पूववत्‌ उद्‌ मासित नहीं कर सकती थं । जिन उदयान-लताश्रोसे विलासिनिर्यो श्रति सदय भावस पुष्प चयन करती थीं उन्ींको वानरोंने बुरी तरहसे छिन्न-भिन्न कर डाला था; श्रद्धालिकाश्रोके गवा रातमे न तो मांगल्य प्रदीपसे और न दिनम ग्रह- लददिमयोकी मुखकांतिसे ही उद्धासित हो रहे थे, मानों उनकी लज्जा ढकनेके लिये ही मकड़ियोंने उनपर जाला तान दिया था ! नदियोंके सैंकतोंपर पूजन-सामग्री नहीं पड़ती थी, स्नानकी चहल-पहल जाती रही थी, उपान्त देशके वेतस-लता-कुञ्ज सूने पड़ गए ये ( रघुवंश १६-११-२१ ) । ऐसे ही विध्वस्त भारतवर्षकों शुप्त- सम्राटोंने नया जीवन दिया | कालिदासके ही शब्दोंमें कद्दा जाय तो 0म्राटके नियुक्त शिल्पियोंने प्रचुर उपकरणोंसे उस दुःशाग्रस्त नगरीको इस प्रकार नयी बना दिया जैसे निदाघ्र-ग्लपित धरित्रीकों प्रचुर जल-वर्षणसे मेघगण ! तां शिल्पिसंधा: प्रभुणा नियुक्तास्तथागतां संभुतसाधनलात्‌ | पुर॑ नवीचक्रुरपां विसर्गात्‌ मेत्रा निदाघग्लपितामिवोबीम्‌॥ ( खुबंश १६-३८ ) गुप्त सम्रारोके इस परक्रमको भारतीय जनताने मक्ति श्रोर प्रेमसे देखा । शताब्दियाँ ओर सहस्राग्टक बीत गये पर च्राज লী भारतीय जीवनम ग्रुप्त सम्राट घुले हुए हैं | केवल इसलिये नहों कि विक्रमादित्य और कालिदासकी कहानियाँ मार- तीय लोक-जीवनका श्रविच्छेद्य अंग बन गई हैं, बल्कि इसलिये कि आजके भारतीय धर्म, समाज,आचार-विचार,क्रिया-काण्ड ,आदियें सर्वत्र गुप्तकालीन साहित्यकी श्रमिट छाप हे। जो पुराण ओर स्मघृतियाँ तथा शास्त्र निस्संटिग्ध रूपसे आज प्रमाण माने जाते हैं वे श्रन्तिम तौरपर गुप्त-कालमें रचित हुए, थे, वे आज भी भारतवर्षका चित्त हरण किए हुए हैं, जो शास्त्र उन दिनों प्रतिष्ठित हुए थे वे आज भी भारतीय चिन्ता-लोतको बहुत कुछ गति दे रहे हैं । आज गुप्त-कालके पूर्ववर्ती शास्त्र और साहित्यकों भारतवर्ष केवल श्रद्धा श्रौर भक्तिसे पूजा मर करता हे, व्यवहारके लिये उसने इस कालके निर्धारित प्रन्थोको ही स्वीकार किया है । युप्त-युगके बाद मारतीय मनीपाकी मौलिकता भोथी हो गईं । टीकाओं और निबन्धोंका युग शुरू हो गया। टीकाओंकी टीका और उसकी भी टीका, इस प्रकार मूलग्रंथकी दीकाश्रोंकी छः-छः आउ-आठ पुश्ततक चलती रहीं | आज जब हम किसो विधयकी आलोचना करते




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