रनयसार | Ranaysaar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अपर्सी हम की अनमृति गन्द में वणित नहीं की जा सकती । इसलिए
पने गामान्यि गो ध्यान मं रनर अप्टपाहड আছি जिस ग्रन्थों की रचना
ही गयी, उसमे स्थेणसार व्यवहारस्लगय का प्रतियादन करने बाला. ग्रन्थ
2 । अन्य रसनाओं की भाँति इसमें भी शुद्ध आत्मतत्व को लश््य में रखकर
गृदरथ और मनि के संबसमसारित्र का निरुषण किया गया है । मुख्य रूप से
यद आसारशास्त है। निम्नलिखित समानताओं के कारण यह आचार्य
ঘন অটা रसना सिद्ध होती है।--
(१) संपटना की देष्दि से आचार्य कर्दऊुन्द की रचनाओं को दो
वर्गों में विभाजित किया जा सफता है--सारमूलक रचनाएँ और पाहुड-
मलकः । भक्ति और रतुतिविषयक रसनाएँ इनमें भिन्न हैं। प्रवसनसार,
समयसार और र्नसार (रखमणसार) के अन्त में सार! शब्द का संयोग
ही रसना-सादेश्य को सूचित करता है ।
(२) प्रवसनसार, नियसमसार, और रमशसार का प्रारम्भ तीर्थंकर
महावीर के मंगलासरण से होता 61 “नियमसार' की भाँति रमणसार में
भी ग्रन्य करा निर्देश किया गया है । मथा--
शमिऊण जिणं बीर॑ अणंतवरणाणदंसणनसहावं |
वोड्छामि णिग्मसार॑ केबलिसुदकरेवलीभणिदं ॥१॥
तेबा-- शमिऊण बड़ढमार्ण परमण्याणं जि तिसुद्रेण ।
पोड्छामि रमगंगमारं मायारणयारधम्मीणं ॥1१॥॥
बात गाधाओं में शब्झसाम्य भी दष्टव्य है । समयमसार में भी
वोस्छामि समसपाह्ाह उत्यादि সা ননা
(३) इन सभी ग्रन्थों के अन्त में रनवा का पुन: नामोल्लेख किया
गया है और सागार (गृहस्थ) जीर अनमर (मुन्ति) दोनों के लिए আমল
फा सार बताया गया है | कहा है-- | রী
बज्मदि सासणभेयं सागारणगारचरियया जुत्तों । .
जो सो परवयणसारं लहुणा कालेण पष्पादिं ॥ प्र. सा. २७५
सम्मत्तणाणं . वेरग्गतवोभाव॑ णिरीहवित्तिचारितं ।
रयणसार,
व
गृणसीलसदहावं उप्पज्जदु रयशसारमिणं ॥ १५२
(४) इसके अतिरिकत रमणसार में दो-तीन स्थलों पर (गाथा
१४८, ८४,१०५) 'प्रवचनसार' के अभ्यास का उत्लेख किया गया है, जो
शुद्ध आत्मा रूप आगम के सार तत्त्व और प्रवचननसार ग्रन्थ का भी सूचक
सकता द्वै ) पंचास्तिकाय में भी कहां गया है- एवं पवयणसारं पंचत्यि-
संगहं वियाणित्ता ।' (१०३)
(५) रथणसार में कहा गया हे--
णिच्छयववहा रसख्य जो গলা গা जाणड़ सो ।
ज॑ कीरइ त॑ मिच्छारूव सव्वं जिगुदि्ट्ठं 1 र. सा., १०९
समयसार में भी--
दंसगणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चे
ताणि पुण লামা নিশিঘানি अप्पाणं चेव णिच्छयदों ॥| समससार, १६
आनार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : 'येनेव हि भावेनात्मा साध्य: साधने ল
स्यात्तेनेवार्य नित्यमुपास्यथ তনি स्वयमाकूय परेपपं व्यवहारेश साधुना
दर्शनज्ञानचारिगत्राणि नित्यमुपरास्थानीति प्रतियागते 1 अर्थात् साथ की
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