कविता - कौमुदी भाग - 1 | Kawita - Kaumudi Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
474
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मनी দর নী आम যত क च = ध क च
( १३ )
संसार क्रे पदार्थो भौर घटनाओं को सभी ठेखते हैं परन्तु
जिन भं से उन्हें कबि देखता है बे मनिरालो हां होती हैं।
गँधार के लिये पहाड़ों के भीतर से आती हुई नदी एक नदी
मात है ; कवि के लिये उस श्वेतवस्यां शोभायुक्त खाजवत्ती
का नाचता दुआ शरोर श्छंगार की रंगभूमि है । आं बहो,
पर चितबन में भेद है । बिहारी ने यह ते खच कहा ইঁ
» छनियारे दीर्घ नयन किती न तझनि समान।
वह चितवन कलु ओर है जिहि बसर होत सुजान ॥
किन्तु बिहारी ने इस रसीले दोहे में केवल बाहरो आँखों
ही के रस का वर्णन किया--और वद्द भी अधूरा । वास्तव
में वश करने वाली आँखों में इतना भेद नहीं होता, जितना
वश होने वाली आँखों मे | होरे की परख जोहरी की आखे'
करती हैं, कुब्जा के सोन्दय्य की पह्चिचान रस प्रवीण कृष्ण
ही का होती है; पदार्थ रूपी चित्रा में चितेरे के हाथ की
महिमा कवि को ही आँखे पदिचानती हैं, प्रकृतिक दैबी
सङ्गीत उसी क कान सुनते हे । विक्षानवेत्ता पदार्थो के बाहरी
अंगो की छानबीन करता है, ओर उनके अवयवों का सम्बन्ध
».. दूढ़ता है, नीतिश उनसे मनुष्य समाज के लिये परिणाम
निकालता है , किन्तु उनके आंतरिक सौन्दयं की श्चोर कवि
ही का लक्ष्य रहता है। वैज्ञानिक और नीतिश भी जैसे जैसे
अपने लद्॒य की खोज में गदर डूबते है, वैसे वैसे कवि के समीप
पहुँ लते जाते हैं। लभी विद्याओं ओर शास्त्रों का अन्त और
उनको सफलता कथिता में लोन होने दी में है।कथि के
खस्बन्ध में कद्दा है :-- |
४ आनात यन्न चन्द्राः जानन्त यन्न ओे।गिनः।
जनीते यन्न गपि तच्जानाति कविः स्वयम् ॥
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