शांतिप्रिय द्विवेदी जीवन और साहित्य | Shanti Priy Dvivedi Jivan Aur Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय प्रवेश १ चुण्ड में रहते ये । यह काल उरं जनक वच्टों म व्यतीत करना पडा था। इस सम्बंध में जो विवरण उपलब्ध द्वोता है वह उतकी मनोदशा और व्यथा कष चआापक है। मृत्यु के पूव भयातव रोग स मनवरत सधप करते हुए जब वह टूटन्स गये तब उ-हं अपनी मत्यु का पूवामास हो गया। उहाने अन्तिम साँस लेने स पूव अपने दाह सस्वार कं विषयमे यह इच्टाव्यक्त कौ थो कि मेरी अत्यप्ठि वहाँ न की जाए जहा राजा महाराजाओ या महान नागरिका वी होती है बरन मेर शव को हरिश्चद्ग घाट के उम स्थान पर जलाया जाए जहाँ सामाय नागरिक जलाए जाति द 1 ^ यह शब द्विमैदौजौ कौ निराश मन स्थिति के परिचायक हैं। उदर रोग के अत्यन्त नाकु दौर से गुजरते हुए और ममान्तक व्यया को सहन करत हुए २७ अगस्त, सन्‌ १९६७ का द्विदेदी जी का काशी म॑ स्वग॒वास ही गया । स्वभाव जीर प्रकृति श्री शातिप्रिप द्विवेदी को आय द्राह्मणा बे मदश्य ही मधुरता प्रिय थी क्योंकि ब्राह्मणा के लिए भ्रमुखत यह विख्यात है कि 'ब्राह्मणम्‌ मधुर प्रिया । श्री द्विवेदी जी कौ यहो स्वाभाविक प्रवत्ति इहें प्राइतिक वातावरण की ओर अग्रसर कर्ती धी} ्ङृतिके सग से प्रक्तिपन कनेर जो अपनी भधुरता के लिए प्रमिद्ध हैं से मित्रता-सी ही गयी थी । थी द्विवेदी का स्वभाव बचपन में इतना भाला- आला एवं निष्कलक था कि बचपन म॑ एक बार कुछ गाद खा लेने पर इनको यह भय हुआ कि कहा नोम का वक्ष इनक सिर पर ही न उग आए। जीवन के प्रारम्भिक क्षणों से ही प्रकति के प्रति अनुराग या, प्रकति की चनुरगिनी कलाएं दह गदश अपनी आर आकषित करती रहतो था। अपन स्वभाव की सरलता-तरलता मे वे मानव जगत बौर प्रकति जगत म भिनता लदय नीं कट पाते ये । वाल्यावस्था में আলনী का जिस प्रकार हठो स्वभाव होठा है परन्तु बह हमशा हढ नहां करत कुछ यही स्वभाव श्री द्विवेदी का भी था। उनमे भी प्रतिददता का भाव जाय चुका था परन्तु उनका यह स्वभाव हमेशा नहीं बना रह सका। पढने की अपेक्षा হু प्रकृति परागणम्‌ अकेले घूमना खधिकं लच्छा लगता था1 देहाती मदरस म इहु उत्तरा- धिकार के रूप म काव्य का प्रेम तथा आदश का आभास मिला या । परन्तु स्वभाव लजालू और यपू य ए बर्‌ सबके अहूकार का ऋर दहन करते-करदे হল भह झूय हो गये थे । प्रारम्भ से ही द्विदेदो आात्मलीन भावुक व्यक्तिथे। य काव्य प्रेमो थ और भावना के भीतर से जीवन का स्पश चाहते थे। इसके साथ ही इनकी दत्ति कोमला थी । बचपन में प्रकति को तिद्वद्वता मोर प्रफुल्लता के वातावरण के आभास ~~~ १ दे० नेवजौवन हिदो दिक्‌ म श्रौ रजन्‌ भूरि दवे लिखित 'शातिदप्रिय द्विवेदौ व्यवितत्व और क्तित्द” शीपक विवघ, ७ अगस्त सन्‌ १९६ 1




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