ब्रह्मदर्पणा | Brahmadarpana

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Brahmadarpana by राजकुमार - Rajkumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८१३) . करते हैं के में एकसे अनेक होकर विचर इस उनकी सक्ष्म ब्ात्ति को जानतेही, में सत्‌ असत्‌ से विलक्षण रूप धारण कर प्रकट हो आती हूं, ओर क्रमशः अनेक श्रीरों को धारण कर तुम्हारे पिता को उनमें निवास- स्थान देकर एकसे अनेक वना देती हूं, और वह फिर मेरे साथ निचरने लगते हैं, हे पुत्र | जो कुछ तृ देखता है वह सब मेरीही रची हुई है, और तेरे समीपवर्ती जो तेरे पिता स्थित हैं, उनकी चेतन्यता करके सब संचतन होरही है; हे पुत्र | तू इसी जगह अपने माता पिता की अद्भत शुक्रि को देख, एक पलके लिये ख चन्दकर, ओर फिर खोलदे. उसने वैसाही किया, हज़ारों शरीर सुन्दर से सुन्दर एथ्वीपर म्त्तिका के खिलौने की तरह पड़े देखा, चेहरा मोहरा सब बना है; पर कोई इन्द्रिय काम नहीं देती हैं, न वे चलते हें, न फिरते हैं, न घोलते हैं, न खाते हैं, न पीते हैं, पापाणु- वत्‌ पड़ है, माता ने कहा हे पुत्र ] अब अपने पिता की शक्ति को इन्हीं मे देख, माता के कहने से पिता की नासिका में से एक श्वास निकलकर प्राण वायु को সুর सें उन सब श्रीरों में प्रवेश करके उनका अचेत से सचेत दमभर भें बना. दिया, वे सब उठ खड़े हो गये, ओरे अपने माता पिता को प्रणाम कर विचरनें




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