वर्णी - वाणी भाग - 3 | Varni - Vani Bhag - 3
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
454
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)७ कस्याण-कटोर
२५. कस्याणका मागे अन्यत्र नही, न तो तीथेमे है और न
मन्दिरो में है, न पुराणोमे है, न सन््तसमागममे है अपितु केवल
मूच्छा छोड़नेमे है ।
जहॉत्क बने, अपनेसे जो वने, उसे करो परकी अपेक्ता छोड़ो |
परसे न तो किसी का कल्याण हुआ न होगा ।
(३० | ७। ४८ )
२६. श्रोताओकों मनमानी छुना देना, अपनी प्रसुता जमाना
पाण्टित्य प्रदशन करना तथा हम ही सब छुछ् हैं? इत्यादि मनो
विकारोके होते आत्मकल्याणकी लिप्सा अन्धे मनुष्यके हाथमें
दपण सदश दह } दृरारा मनुष्य उस द्पेणसे चाहे मुख देख भी
सकता ह परन्तु अन्धेको कोई लाभ नदीं ।
(२५। ८ । ४८}.
२७. कस्याणका मागे तो दुखं कठिन नरी परन्तु उसकी
ओर कोई लक्ष्य नहीं। हम कल्याण मानते हैं कि अपने अभिप्रायके
अनुकूल परिणमन हो परन्तु ऐसा होता नहीं क्योकि जितने भी
पदार्थ हैं वे सत्र अपने अपने द्वव्यादि चतुष्टयंके अनुकूल परिण-
मते हैं । उन्हें अपने अनुकूल परिणमना सबथा सम्भव है ।
( २८ | 4। ४८ )'
श्८. कल्याणका मार्ग कही नहीं, उसकी प्राप्तिके अथे किसी
व्यक्ति विशेषकी आवश्यकता भी नहीं। कल्याणका वाधक केवल
श्रकल्याण ह चतः अक्रल्याणका जो कारण है उसेन होनें देना
यदी कल्याणक्रा अवाधितत मागं ह। *
(१९ | १० | ४८)
६. कल्याण और अकल्याण दोनों ही स्वतन्त्र आत्माकी
परिणति हैं। स्वतन्त्रका अर्थ यह है कि आत्मा ही इनका कर्ता है
इनमें एक पर्याय तो विकारी है ओर एक अधिकारी है। यही.
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