दादूपंथ एवं उसके साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन | Dadupanth Evm Uske Sahitya Ka Smikshatmak Adhyayan

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Book Image : दादूपंथ एवं उसके साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन - Dadupanth Evm Uske Sahitya Ka Smikshatmak Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: १: वैदिक धर्म का पुननंवीकरण “भारतीय संस्कृति के विकास में प्राचीनता के व्यापक प्रभाव के कारण वैदिक धारा का निविवाद रूप से अत्यधिक महत्व है। अपने सुग्रथित, सुरक्षित और विस्तृत वाक्य कौ अति प्राचीन परम्परा तथा अपनी भाषा और वाडमय के अत्यन्त व्यापक प्रभाव के कारण ही नहीं अपितु मारत के घार्मिक, सामाजिक तथा सास्क्ृतिक जीवन में अपने शाश्वत प्रभाव के कारण भी भारतीय संस्कृति में वैटिक धारा सदा से श्रत्यधिक गौखपूर्ण रही है और निरंतर रहेगी |” इसके नैरंतय का प्रमुख कारण यह है कि यह वस्तुतः तत्कालीनं युग द्रष्टाओं की सर्वकालीन, सर्वदेशीय शाश्वत भावना का अनुपम उद्रेक है। इसके अन्तर्गत भूत, वर्तमान एवं भविष्य के विविध शान-विज्ञान के सार संगुम्फित हैं। मानव-चिन्तन की व्यावह्रिक एवं सैद्यातिक अन्त ष्टि के मणिक्राचन संयोग के कारण यह भारतीय मनीपरा का एक श्रविमाञ्य श्रग है | वेद ब्युत्तत्ति की दृष्टि से वेद शब्द “विद्शाने? धातु से बना है जिसका अर्थ शान होता है। “आरम्म में वेद शब्द वास्तव मे सामान्य शान या विद्या के श्रर्थ मे प्रयुक्त होता था। कालान्तर में अनेक कारणो,से यह प्राचीन परम्परा से प्राप्त मन्न-ब्राह्मणात्मक वैदिक साहित्य के लिए दी प्रयुक्त होने नगा । यद यह बात विशेष ध्यान देने की है किमत्र भाग ओर ब्राह्मण भाग मे परल्यर भिन्नता है श्रौर ब्राह्मण भाग मंत्र भाग के पीछे चलता है। अतएबव सुविधा को दृष्टि से हम भी वेद शब्द का प्रयोग मंत्र भाग के लिए ही करना उचित समते द | आज भी वेदो.के ऋण्वेद्‌, यजुवद, सामवेद्‌ श्रौर अ्थर्ववेद नामक चदविभाग हमारे सम्मुख थ्रस्तुत हैं। ऋग्वेद पद्यात्मक एवं छन्दोबद ऋचाओओं का अभूतपूर्व संग्रह है। इन ऋचाओं के माध्यम से एथ्वी स्थानीय, अ्रंतरिक्ष स्थानीय एवं च्‌ -स्थानीय देवताश्रो की अर्चना की गई है। स्व॒ति के अतिरिक्त इन पद्यो में यथास्थान दाशनिक दृष्टिकोण का समावेश भी मिलता है। सुतरां वैदिक दृष्टिकोण को सम्रग्रता में समझने और समझाने कौ दृष्टि से वेद अभूतपूर्व सामभी प्रस्तुत करता है| १--डॉ० मंगलदेव शास्त्री--भारतीय सस्क्ृति का विकास, प्रथम संस्करण, १६५९५ १० ५३.५४। २०-डॉ* मंगलदेव शास्त्री--भारतीय संस्कृति का विकास, प्रथम सस्करण, ११५६, ० ५४।




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