हिन्दी श्रीभाष्य | Hindi Shribhashy

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ छ ) भी वे बने रहते हैं, अतरव प्राणाधीन जगत्‌ की प्रहृत्ति नदीं मामी जा सकती है । किज्च-- हू वा इस शब्द का प्रयोग रक्त श्रुति को अन्यत्र सिद्ध अर्थे का अनुवादक बतलाता है । किव्च प्राणस्य प्राशः इत्यादि श्रतियों में नारायण को ही प्राणों का भी नियामक बतलाया गया है । श्रतएव प्राखाधिकरणख प्रति- पाद्य मो अराय हीर । ওযা अधिकरणएके विषय वाक्यको उपस्थित करते हूए बतलाया गया दे कि- श्रथ यदतः परो दरवो अयति दीप्यते इस बाक्य के ज्योति शब्द की इद्‌ बात तदु यदिद्म स्मरन्तः पुरूषो ज्योतिः इस वाक्य के जाठरानन्ञ क साथ एकता बतलाकर उसको जगन्‌ का उपादान कारण बतलाया गया हे 4 यहाँ पर पूर्वपक्षी का कहना हैँ कि असिद्धि के अनुसार ब्योति शब्द को अश्रग्नि का ही वाचक मानना चाहिए किन्तु इसका ख्वण्डन करते हुए भगवान्‌ रामानुजाचार्ये कइते हैं कि इस विद्या के उपक्रम में ही पुरुष सूक्त में खव परमोत्मा को प्रत्यभिज्ञा पतावानस्य महिमा । ठतो उ्यायोस्न पृर्षः । पष्टोस्व स्वा भूतानि । त्रिपादस्य मृतं दिवि / इस श्रि दवाय होती दै । किञ्च इसी विद्या के अकरण मेँ ज्योति शब्द वाच्य की पादसाम्य के कारण गायत्री शब्द से अभिद्दित किया है । जिस तरद मायत्रनी के चार पाद इोदे हैं उसी तरह परमात्मा की मी सिमा के चार. पाद पुरूष सूक्त तथा इस विद्या में वशिंव ईद- भूतादि शब्दिव ्रात्म वगं प्र- मात्मा का पहला पट्‌ है! मोग स्थान ल्प से भजित परथिवी




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