डायरी के कुछ पन्ने | Dayari Ke Kuchh Panne

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Dayari Ke Kuchh Panne by घनश्याम दास बिड़ला - Ghanshyam Das Vidala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डायरीके कुछ पन्ने १३ अच्छा है ! मैने कप्तानतक दौड-धूप की, उनका विचार बदले, इस- की काफी कोशिश की । पर हुजरते दाग जहां बेठ गये बठ गये ! गांधीजी तो टस-से-मस भी न हए । आखिर पडितजीने अपना जोर आजमाना शुरू किया । उन्होने आग्रह्‌ किया किं गांधीजी फस्ट॑का टिकट वदा छे । सध्या-समय धूमते-घूमते मने भी थोड़ा- आग्रह किया। गाधीजीने पूछा--तुम क्यो आग्रह হল छगे ? . मेने कहा--आपने टिकट तो सेकडका ल्या हे । कितु आपकी प्रतिष्ठाके कारण फस्टके तमाम हक ' आपको स्वत मिरु जायगे । फस्टंकी छतपर कनात लगाकर आपके लिए प्रार्थना-धर बनवा दिया है क्या यह्‌ उचित नही कि आप फरस्ट- के पैसे ही दे दें ? गाधीजीने कहा--नही, इस दलीलसे तो यह सार निकक्ता ह , कि हम फस्टेंके तमाम हकोंको स्वयं त्याग दे । नतीजा यह हुआ किं गाधीजीने फस्टेकी छतपर घूमना उसी समय बद कर दिया । प्राथनाकी कनात तो एक ही दिन काम জাই । आज तो उन्होने प्राथना. अपने निकम्मे स्थानपर ही की । प्राथना करते समय जहां गाघीजी ध्यान करते थे, वहा मं यह्‌ सोचता था कि भगवन्‌, प्रार्थना समाप्त हो तो यहासे उट्‌ ! बेठनेवार दो मिनिटमे ही आधे बीमार हो जाते हुं । वमन नही हुआ, यह्‌ सेरियत हं । कहते हं जहा चाद-सूरजकी गति नही ह, वेहां भगवान्‌ विराजते हं } हमारे जहाजके बारेमे यह कु अरामे कहा जा सकता हं कि जहां भरु आदमियोकी होश-हवासके साथ गति नही है, वहा गांधीजी विराजते है। कोई मिलनेवाला जाता है, तो एक मिनिटसे ज्यादा रुकना भी पसंद नही करता । बंबईसे चलते ही समुद्र तूफानी हो गया । इसलिए गाधीजीका स्थान एेसा रहता हं, जंसे हिदुस्तानका डोलर-हिडा ।




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