रुपये की कहानी | Rupaye Ki Kahani

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Rupaye Ki Kahani by घनश्याम दास बिड़ला - Ghanshyam Das Vidalaश्री पारसनाथ सिंह - Shree Paarasnath Singh

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श्री पारसनाथ सिंह - Shree Paarasnath Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रद इस सिलसिले में हमें नोटों की रचना और उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में भी कुछ जान लेना जरूरी हैं । सिक्का, जैसा कि हमने पहले बताया है, अपनी कीमत स्वयं लेकर चलता हैं। एक सुवर्ण-मृद्रा १ तोला खालिस १०० की अच्छाई के सोने की, है, तो वह कीमत उस मुद्रा के भीतर ही भरी पड़ी है। पर नोट में यह वात नहीं हैं। नोट एक दृष्टि से तो महज कागज का टुकड़ा है । कागज के टुकड़े की कीमत कैसी ? पर नोट की कीमत इसलिए है कि हमें आवश्यकता हो तो नोट निकालनेवाली संस्था से हम चाहे जब उस नोट की कीमत तलब कर सकते हैं । आजकल तो सभी मुल्कों की नोट निकालनेवाली संस्थाओं या प्रस!रक, कोठियों (5ि८५८१ए८ 820४5) ने नोट की स्वयंसिद्ध मुद्रा से अदला- बदली बन्द कर दी हैं। पर इससे नोट की साख में, देखने में, कोई अन्तर नहीं हुआ है, क्योंकि नोट के बदले में जिन्स या श्रम खरीदने कोई कठिनाई नहीं हैं। नोट की जो कीमत हूँ वह इसी आश्वासन पर व्यवस्थित है कि उसकी जिन्स या श्रम से अदला-बदली में कोई दिक्कत नहीं है, पर किसी कारणवद्य यदि नोट निकालनेवाली संस्था नेस्तनाबूद हो जाय या उस संस्था का दिवाला निकल जाय, तो फिर नोट की कीमत अखबार के टुकड़े से भी गई-बीती ! इसके विपरीत, मुद्रा की कीमत चूंकि मद्रा के भीतर ही है, इसलिए मुद्रा निकालनेवाला राजा हतश्री हो जाय या सिहासनच्यत हो जाय तो भी मुद्रा के मालिक को कोई क्षति न होगी । शायद नोट और सिक्के की तुलना के लिए साक्षात्‌ विष्णु और विष्णु की मूर्ति की तुलना कुछ अंश तक उपयूक्त हो सकती है । साक्षात्‌ विष्णु स्वयं विष्ण हैं,और पाषाण निरा पत्थर है। पर पत्थर की सूत्ति भक्त की दृष्टि




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