घर मेरा है | Ghar Mera Hai
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घर मेरा है [| १७-
पर यही नरेश कहते थे, “भाभी, रिक्शे के पैसे दे दो तो ला दूं ।
इतनी धूप में हम से तो पैदल नहीं जाया जाएगा।'
बचे हुए पैसे कभी वापस नही मिलते ये | कभी मांगे भी तो जवाब
मिला, “इत्ती देर हो गई थी, वहां लस्सी पी ली ४? इस्जेक्शन लगवाने
तक इनकी साइकिल पर विठाल कर नहीं ले जा सकते थे । तब तो
कभी-कभी “ये! भी झीक जाते थे, कहते थे, 'जब कुछ सहारा ही नही,
तथ इन्हें रखने में फायदा ही क्या ?” अब फिर उधर ही ढल गए।
नरेश तो बाहर से आने ही कहते हैं. 'भाभी, चाय पिलवाओ।*
“अरे, चाय के साथ कुछ है या नही...।'
मैं चाय-नाश्ते में लगी रहती, बच्चे दौड़-दौड कर पहुंचाते रहते।
फिर आकर धीरे-से मुझसे पूछते हैं, “मम्मी, हम भी खा लें ?”
“कयो, पापा भौर चाचा ने तुमसे नदी कहा खनि को?
दन
अपने पास ही पटरा डाल कर मैं उन्हें बिठाल लेती हू । प्लेट
में रख फर नाश्ता पकडाती हूं । छोटे-छोटे हाथ मुह की ओर जा रहे
है, इतने में आवाज आती है, ' बिट॒दू, एक गिलास पानी ।”
बह कौर प्लेट में डालकर दौड जाता है। आहत-सी देखती
रहती हूं । कुछ बोल दू गी तो सुतने को मिलेगा, 'बच्चो को बिगा-
इती हो ।,
एसे कई दुष्य स्मृतिपटल पर घूम जति है ।
मैं अब बिल्कुल नही चाहती कि कोई आकर रहे । “ये! मुझे तैयार
करने की हर कोशिश करते हैं । समझाना-बुझाना, लडाई-झगडा सब
आजमा चुके है। अन्त में कहते है, “अच्छा, मैं ही उसे लेकर भलग रह
जाऊंगा ।/
यह इनका सबसे बड़ा हथियार है। मैं बच्चों को लेकर अकेली
नही रह पाऊंगी, यह 'ये” जानते हैं }
मैं सब तरह से हार गई हूं ।
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