मैं मेरा मन मेरी शान्ति | Main Mera Man Meri Shanti

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
292
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१४५ मे
मैं मुनि हू। आचार्यश्री तुलसी का वरद हस्त मु प्राप्त है। मेरा
सुनि-धर्म जड क्रियाकाण्ड से अनुस्यूत नही है 1 मेरी आस्या उस मुनित्व मे
है जो बुझी हुई ज्योति न हो । मेरी आस्था उस मुनित्व मे है, जहा आनद
का सागर हिलोरें भर रहा हो | मेरी आस्था उस मुनित्व मे है, जहा शक्ति
का स्रोत सतत प्रवाही हो ।
मं एक परम्परा का अनुगमन करता हृ किन्तु उसके गतिशील तत्त्वो
को स्थितिशील नही मानता | मैं शास्त्रों से लाभान्वित होता हू, किन्तु
उनका भार ढोने मे विश्वास नही करता ।
मुझे जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमे अतीत मौर वर्तमान का वियोग नदी
है, योग है। मुझे जो चेतना भ्राप्त हुई है, वह तव-मम के भेद से प्रतिबद्ध
नही है, मुक्त है । मूके जो सावना मिली है, वह् सत्य की पूजा नही करती
शत्य-चिकित्सा करती है ।
सत्य की निरकुण जिज्ञासा ही मेरा জীনল-ঘন है। वदी मेर
मुनित्व है। मैं उसे चादर की भाति मेढे हुए नही हु । वह वीन कौ भा
मेरे अन्तस्तल से अकुरित हो रहा है।
एक दिन भारतीय लोग प्रत्यक्षानुभूति की दिया में गतिग्ील थे।
अब वह वेग अवरुद्ध हो गया है। जाज का भारतीय मानन पोक्लानुभूति
से प्रताडित है। वह वाहर से अर्थ का ऋण ही नही ले रहा है, चिन्तन का
User Reviews
No Reviews | Add Yours...