बिल्लेसुर बकरिहा | Billesur Bakarihaa

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Billesur Bakarihaa by श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' - Shri Suryakant Tripathi 'Nirala'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ ] गोद में जैसे एक कन्या छोड़कर स्वगें सिधार गये हैं। সঙ্গী कटर सनातनधर्मी थे । ललई का दूसरा हाल है । पहले ये भी कलकत्ता अम्बे की स्राक छानते फिरे, रन्त मनँ रतलाम मँ श्राकर डेरा जमाया । यहाँ एक आदमी से दोस्ती हो गईं। कहते हैं, ये गुजराती ब्राह्मण थे | शेश्वर की इच्छा, कुछ दिलों में दोस्त ने सदा के लिये आँखें मूँदीं। लाचार, दोस्त के घर का कुल भार ललई ने उठाया । दोस्त का एक परिवार था। पत्नी, दो बेटे, बड़े बेटे की सत्री । इन सबसे ललई का वही रिश्ता हुआ जो इनके दोस्त का था । इस परिवार में कुछ माल भी था, इसलिये ललई ने परदेश रहने से देश रहना श्रावश्यक सममा । चूकि अपने धमे- कमे मेँ दद्‌ थे इसलिये लोकनिन्दा श्रौर यशःकथा को एकसा सममभते थे । अस्तु इन सबको गाँव ले आये । एक साथ पत्नी, दो-दो पुत्र ओर पुत्रवधू को देखकर लोग एकटक रह गये। इतना बड़ा चमत्कार उन्होंने कभी नहीं देखा था। कहीं सुना भी नहीं था। गाँववालों की दृष्टि ललई पहले ही समभ चुके थे, जानते थे, जिस पर पडती है, उसका जल्द निस्तार नहीं होता, इसलिये निस्तार की आशा छोड़कर ही आये थे। गाँव- वालों ने ललई का पान-पानी बन्द किया। ललइे ने सोचा, एक सचे घवा । गांववाले भी समे, इसने बेवकूफ वनाया, माल




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