सरदार पृथ्वीसिंह | Saradar Prithvisingh

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Saradar Prithvisingh  by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय ? अमेरिकाके रास्तेपर घरका पेसा-कोड़ी प्रथ्वीसिंहके पास ही रहता था। उन्होंने सो रुपये जेबसमें रकखे ओर मेम्यो जानेके लिए पितासे ब्रिदाई छीं। वह कहाँ जायेगे, इसका उन्हें पता नहीं था हाँ, वह मेम्यो जानेके लिए तैयार नहीं थे। यद्यपि मोनेधासे उन्होंने मेम्योका टिकट छिया था, लेकिन रास्ते हीमें रंगूनकी गाड़ी पकड़ छी। प्रष्वीसिहको नाच तमार, एेशोदशरतका शोक नही था, इसलिये रंगूनमें भी घह शहरकी ओर नहीं गये। कितने ही पंजाबी मुसाफिर अपना सामान सर पर छलादे किसी ओर जा रहे थे। १७ सालके पृथ्वीसिंह भी उनके साथ हो लिये। वहाँ उनकी दो पंजाबी नौजवानोंसे भेंट हुई, जो नोकरीकी खोजमें देशसे निकले थे ओर तारबाबूकी परीक्षा दे रहे थे । उन्होंने पृथ्वीसिंहकों भी समझाया। स्टेशन मास्टरी बडी आमदनीकी नौकरी थी इसमें शक नहीं, लेकिन हमारे तरुणकों रुपयेका आकर्षण हो तब ना। पंजाबी किसानोंके छड़के चीनतक नोकरीकी तलाश जाया करते थे। एकाएक प्रथ्वीसिंहके मन में आया, क्‍यों न चीन चला जाऊँ। प्रथ्वीसिहने पिनांग ( मलछाया ) का टिकट कटाया। पिनांगम उन्हें दूसरे मुसाफिरोंके साथ १५ दिन कोरंटीनमें बंद रहना पद्ा। रसद पानी स्दीमर कंपनी देती, खाना रोग आप बना रेते। कोरंटीनका समय समाप्त होनेके बाद वह शरे गये । छोरी-मोरी नौकरियों थां और न उन्हें अभी नोकरी करनेकी मजबूरी थी । सिंगापुरमें भी उनका रास्ता रोकनेवारूी कोद चीज नहीं मिली । जून ( १९०९ ) का महीना था। जहाज १०७०० चीमियों और




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