त्याग भूमि | Tyag Bhumi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
53 MB
कुल पष्ठ :
1074
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)त्यागभूमि |
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अनबन - ~~~ ---~-~ ----~-~-~- ~~~ ~ ~~ ~----~-- ~ ---
गोव
पहले से ही गाँव में दो प्रकार के पेशे वाले थे। पुक्
तो वे जिनके गज़दूरी प्रत्येक घर से एक प्रकार से बैंधी हुईं
थी, जैसे बदई, छोहार, नाई, घोर इन्यादि । दूसरे वे जो अपने
कार्य के अनुसार मज़दरी पाते थे जैसे तेली.जुलादा आदि ।
यद्यति इन दोनों प्रकार के पेगे वाले, गाँवों में अब भी
वर्तमान है तथापि 3नपर इस परिवतेन का प्रभाव पढ़े
बिना नहीं रषटा है ।
लोहार-बढ़ई
बढ़हं एवं लोहार भरे दोनों गाँव के अत्यन्त आवश्यक
पेशेवर हैं | उनके बिना साँव ही देनिक काम की चीजें भी
डीक नहीं रह सकती । इस कारण ये दोनों पेशेवाले गाँवों
म भव मी ज्यों-के-त्यों चतमान है ।
आजकल क्रषि से सहायक ओजारों में लोह की सामग्री
की वृद्धि होने से लोहार का स्थान गाँव में और भी मज़बूत
हो गया है, इस! के साथ-साथ कड़ी की चरखी एवं हल
इत्यादि के उठते जाने से बढुईं की उपयोगिता में कुछ कर्मी
आ गह हे। तथापि वष घट् उपग की धन्य चीजें अब
भी ज्यो-की-न्योः बनाना ह और इन दोनों प्रकार के पेशोबालों
को दन +थी हुई वार्षिक मज़दूरी बहुत-कुठ ज्यों की्त्यों
मिलती जाती है। इसके अतिरिक्त इन लोगों के लिए
मगरों में ४. प्राप्त स्थान हैं। बढ्कि नगरों में जाने से
इनकी भव*था गाँव की अभस्था से अच्छी हो जावी है ।
कुम्हार
गाँव का सबसे गरीब पेशेवर कुम्हार हैं। इसकी पूँजी
भी सबसे कम होती हे ¦ ज्व ए्युमिनियम तथा अन्य
धातु के वतंनों का प्रचार अधिक ट्ोने के कारण अच्छे श्रेणी
के किसान उन्हें हँं' काम में लाते हैं, इस कारण मिट्टी के
बत॑नों की ब्िक्रा घट गई है। गरीबों में भब भी उसकी
माँग ज्यों-की-त्यों हैं । इसक एए नगरों में भी कोई आशा-
पूण क्षेत्र नही हैं ।
चर
गाँव के पेशेवालों में ओद्योगिक कान्ति का सबसे
अधिक प्रभाव चसार के धन्ये पर पड़ा है! जबतक कच्चे
चमडे को खर्रीदने वाला कोई नही था सब तक मरे हुए
१० [ आशिन
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ज्ञानवनें के उपर की खार छोग चमारोकोदेवेतेये। यह
रिवात प्राय: सब जगह प्रचलित था, किन्तु जवसे करूकता
और बम्ब के व्यापारी कच्चे चमड़े को मुल्य देकर खरीदने
लगे हैं तवसे छोग चमारों को देने के बजाय उन्हें देखे
आर पसन्द करते है ¦ इस प्रकार गाँव के चमारों की यह
परम्पशगत आय बन्द होती जा रही है । ये छोग चमड़े की
विदेशी वस्तुओं के मुकाबले अपनी चीज़ नहीं 5हरा सकते।
अतः दिन दिन इनके उद्योग का हास ही होता जा रहा
है । कुछ लोग वर्तमान ढंग ते स्थापित नगरों के चमदेके
कारसखानों में काम करने लगे हैं। अधिकतर छोग चमड़े का
पेजश्ा छोड़कर खेतों अथवा জন্য स्थानों में मज़दूरी करने
लगे हैं ।
तली
डपयुक्त पेशेवरों के प्रकारो म तेली वृसरे प्रकारका
पसेवर हे । इनक धन्धे पर विदेश मँ तेल्टन भेजे জান হলে
नगरों में तेल निकालने की मिले खुल जाने से उतना प्रभाव
नहीं पडा है, जितना गाँवों में मिद्दी के तेल के भव
का । गाँवों में मिट्टी का तेल आ जाने से इनका काम बहुत
घट गया हैं और ठेके पर काम करने वाले पेशेवर होने के
कारण इनकी अवस्था दिन-दिन खराब होती जा रही है |
रगारं का धन्धा
गाँव में যাই एक बहुत তক্মল धन्धां था किन्तु बिदेशी
रंग का प्रवेश होने के कारण रँगरेज़ों का धन्धा दिन-दिन
गिरता गया । छोग विदेशी रंग से सरलतापूर्थक रेग छेते
ह। यहाँतक कि रंगरेज़ों ने भी जड़ी-बूटी से रैंगी जानेवाली
সাম पद्धति को छोड़ दिया । धीरे-घीरे वह पद्धति छुप्त-
सी हो गई । মিভাঁ বা प्रारम्भ हो जाने से जुछाहे
सीधे वाज़ार से रैगानरगाया सूत ख़रीदने रूगे , इससे भी
इस धन्धे को बदा चक्का पहुँचा | १८७० ईं० में पहके-
पहल भारत में विदेशी रंग का प्रवेश हुआ और ২৭ অথ
थोड़े समय में भथांत् १८९० तक में रंगादि की देशी
पद्धति विदकुछ नष्ट हो गईं ।
लाह
गाँव के जुलादों पर विदेशी वस्ध के भायात का प्रभाव ›
प्रारम्भ में अधिक नहीं पड़ा | गाँव के अधिकतर छोग मोद़ा
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